Book Title: Pravachan Saroddhar Ek Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 13
________________ १३२ 'इकावनवें-द्वार में स्वलिंग, अन्यलिंग और गृहस्थलिंग की अपेक्षा से एक समय में कितने सिद्ध हो सकते हैं इसका विवेचन किया गया है। गृहस्थ लिंग से चार, अन्यलिङ्ग से दस और स्वलिंग से एक सौ आठ व्यक्ति एक समय में सिद्ध हो सकते हैं। आगे 'बावनवें-द्वार में यह बताया गया है कि निरन्तर अर्थात् बिना अन्तराल कितने समय तक जीव सिद्ध हो सकते हैं और उनकी संख्या कितनी होती है। 'पनवें-द्वार में स्त्री, पुरुष और नपुंसक की अपेक्षा से एक समय में कितने व्यक्ति सिद्ध हो सकते हैं, इसकी चर्चा है। इस सन्दर्भ में यह बताया गया है कि एक समय में बीस स्त्रियां, एक सौ आठ पुरुष और दस नपुंसक शरीर पर्याय से सिद्ध हो सकते हैं। पुन: इसी द्वार में यह भी बताया गया है कि नरक, भवनपति, व्यंतर और तिर्यकलोक के स्त्रीपुरुष तथा अकल्पवासी अर्थात् गैवेयक एवं अनुत्तरविमानवासी देव पुन: मनुष्यभव ग्रहण करके मुक्ति प्राप्त करते हैं तो वे एक समय में अधिकतम दस-दस व्यक्ति ही सिद्ध हो सकते हैं। कल्पवासी देवों से मनुष्य जन्म ग्रहण कर मुक्त होने वाले जीवों की अधिकतम संख्या एक सौ साठ हो सकती है। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और पंकप्रभा आदि से मनुष्य भव ग्रहण करके मुक्ति प्राप्त करने वाले एक समय में चार-चार व्यक्ति ही सिद्ध हो सकते हैं। चौपनवें-द्वार में सिद्धों के आत्म-प्रदेशों के संस्थान (विस्तार क्षेत्र) की चर्चा की गई है। इस चर्चा में उत्तानक, अर्धअवनत, पार्श्वस्थित, स्थित, उपविष्ट आदि संस्थानों की चर्चा भी की गई है। इसके पश्चात् पचपनवें द्वार में सिद्धों की अवस्थिति की चर्चा है। वस्तुत: इस प्रसंग में सिद्ध शिला के ऊपर और अलोक से नीचे कितने मध्य भाग में सिद्ध अवस्थित रहे हुए हैं, यह बताया गया है । पुनः जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है ५६-५७ वें और ५८वें द्वार में सिद्धों की उत्कृष्ट-मध्यम और जघन्य अवगाहना की चर्चा की गई है। उन्सठवें द्वार में लोक की शाश्वत जिन प्रतिमाओं का उल्लेख है। साठवें द्वार में जिन कल्प का पालन करने वाले मुनियों के और इकसठवें द्वार में स्थविर कल्प का पालन करने वाले मुनियों के उपकरणों का उल्लेख है। इसी प्रसंग में स्वयं बुद्ध और प्रत्येक बुद्ध के स्वरूप की चर्चा भी की गयी है। ___ बासठवें द्वार में साध्वियों के उपकरणों की चर्चा है। जबकि वेसठवां द्वार जिन कल्पिकों की संख्या के सम्बन्ध में विवेचन करता है, चौसठवें द्वार में आचार्य के ३६ गुणों का निर्देश किया गया है, इसी प्रसंग में आचार्य की आठ सम्पदाओं की भी विस्तार से चर्चा की गई है। ज्ञातव्य है कि यहाँ आचार्य के इन छत्तीस गुणों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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