Book Title: Pratikraman Sambandhi Vishishta Marmsparshi Prashnottar
Author(s): Jagdishprasad Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 5
________________ |337 337 15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी नियम नहीं। अतः चारों प्रहर स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करने की आलोचना करने का क्या अर्थ? ५. पूर्वपक्ष- पडिक्कमामि एगविहे- ३३ बोल में कुछ हेय, कुछ ज्ञेय तथा कुछ उपादेय हैं। इनका ज्ञान श्रावकों के लिये अनिवार्य है। उत्तरपक्ष- मात्र ज्ञेयता के आधार पर श्रमण सूत्र को श्रावक प्रतिक्रमण में जोड़ना योग्य नहीं है। वैसी स्थिति में ५ महाव्रत, ५ समिति ३ गुप्ति एवं षट्कायरक्षा के पाठ भी श्रावक के लिए ज्ञेय हैं तथा पौषध आदि के अवसरों पर मनोरथ चिंतन के समय ध्यातव्य हैं वे पाठ भी श्रावक प्रतिक्रमण में क्यों नहीं जोड़े जाते? इन ३३ बोलों का वर्णन उत्तराध्ययन के ३१वें अध्ययन में किया गया है। "जे भिक्खू रंभइ णिच्चं जे भिक्खू चयइ णिच्च"....इससे फलित होता है कि ३३ बोलों का संयोजन मुनि के साथ किया गया है। ६. पूर्वपक्ष- नमो चउव्वीसाए- यह पाठ निर्ग्रन्थ प्रवचन का है। जिसमें जिन प्रवचन की महिमा है, अतः श्रावकों के लिए उपयोगी है। उत्तरपक्ष- इस पाठ में प्रारम्भ में यह बात द्योतित होती है, पर आगे कहा गया- "समणोऽहं संजय विश्य...' यह प्रतिज्ञा साधु ही कर सकता है। कारण कि श्रावक तो संयतासंयत तथा विरताविरत होता है। यदि वह स्वयं को श्रमण-विरत कहता है तो उसे माया, असत्य लगता है। प्रतिमाधारी श्रावक से भी यदि कोई परिचय पूछे तो वह कहे- मैं श्रमण नहीं श्रमणोपासक हूँ। निष्कर्ष- अतः श्रावक के प्रतिक्रमण में ५ पाठ तो क्या १ पाठ भी गहराई से अवलोकन करने पर उचित प्रतीत नहीं होता। श्रावक होते हुए भी स्वयं को श्रमण मानकर उन-उन कार्यो को न करते हुए भी उनकी आलोचना करना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। प्रश्न श्रमण और श्रमणी के आवश्यक सूत्र के पाठ और क्रिया (विधि) में क्या-क्या अन्तर है? उत्तर श्रमण और श्रमणी के निम्न पाठों में भिन्नता है १. शय्या सूत्र में 'इत्थीविप्परियासियार'' के स्थान पर श्रमणी "पुरिसविप्परिया सियार'' पढ़ेगी। २. ३३ बोल में विकथासूत्र में श्रमणी स्त्रीकथा की जगह पुरुषकथा पढ़ेगी। नवमें बोल में नववाड़ में जहाँ-जहाँ भी श्रमण 'स्त्री' शब्द उच्चारण करता है, उसके स्थान पर श्रमणी 'पुरुष' शब्द का उच्चारण करेगी। २२ परीषह में श्रमणी स्त्री परीषह के स्थान पर पुरुष .परीषह कहेगी। २५ भावना में भी चौथे महाव्रत की भावना में स्त्री के स्थान पर पुरुष शब्द आयेगा। तैंतीसवें बोल में जहाँ भी गुरु-शिष्य शब्द श्रमण के लिए आता है, श्रमणी के लिए गुरुणी-शिष्या ऐसा पाठ आयेगा। ३. प्रतिज्ञा सूत्र नामक पाँचवीं पाटी में जहाँ पर 'समणो अहं' पाठ आता है, वहाँ समणी अहं ऐसा पाठ कहेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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