Book Title: Pratikraman Sambandhi Vishishta Marmsparshi Prashnottar
Author(s): Jagdishprasad Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ 356 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| __आचार्य जिनदास भी भगवती सूत्र का ही अनुसरण करते हैं- “इन्द्रिय जवणिज्जं निरुवहताणि वसे य मे वटैंति इंदियाणि, नो खलु कज्जस्स बाधाए वति इत्यर्थः । एवं नोइन्द्रियजवणिज्जं कोधादिए वि णो मे बाहेति"-आवश्यक चूर्णि।। . उपर्युक्त विचारों के अनुसार यापनीय शब्द का भावार्थ यह है कि 'भगवन्! आपकी इन्द्रिय विजय की साधना ठीक-ठीक चल रही है? इन्द्रियाँ आपकी धर्म साधना में बाधक तो नहीं होती? अनुकूल ही रहती हैं न? और नोइन्द्रिय विजय भी ठीक-ठीक चल रही है न? क्रोधादि कषाय शान्त है न? आपकी धर्मसाधना में कभी बाधा तो नहीं पहुँचाते? (४) श्रमण- १. श्रमण शब्द 'श्रम्' धातु से बना है। इसका अर्थ है श्रम करना। प्राकृत शब्द 'समण' के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं- श्रमण, समन और शमन। २. समन का अर्थ है समता भाव अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना। सभी के प्रति समता भाव रखना। दूसरों के प्रति व्यवहार की कसौटी आत्मा है। जो बातें अपने को बुरी लगती हैं, वे दूसरों के लिए भी बुरी हैं। "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।'' यही हमारे व्यवहार का आधार होना चाहिए। ३. शमन का अर्थ है- अपनी वृत्तियों को शान्त करना। "जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सत्यजीवाणं । न हणइ न हणावेई य समगुणइ तेण सो समणो।' जिस प्रकार मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार संसार के अन्य सब जीवों को भी अच्छा नहीं लगता है। यह समझकर जो स्वयं न हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है और न किसी प्रकार की हिंसा का अनुमोदन ही करता है, अर्थात् सभी प्राणियों में समत्व बुद्धि रखता है, वह श्रमण ___“णत्थि य से कोई वेसो, पिओ अन्सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ" जो किसी से द्वेष नहीं करता, जिसको जीव समान भाव से प्रिय हैं, वह श्रमण है। यह श्रमण का दूसरा पर्याय है। आचार्य हेमचन्द्र उक्त गाथा के 'समण' शब्द का निर्वचन 'सममन' करते हैं। जिसका सार सब जीवों पर सम अर्थात् समान मन अर्थात् हृदय हो वह सममना कहलाता है। ___ "तो समणो जइ सुमणो, भायेइ जइण होइ पावमणो। समणे य जणे य समो, समो अ माणाबमाणेसु।" ___ श्रमण सुमना होता है, वह कभी भी पापमना नहीं होता। अर्थात् जिसका मन सदा प्रफुल्लित रहता है, जो कभी भी पापमय चिंतन नहीं करता, जो स्वजन और परजन में तथा मान-अपमान में बुद्धि का उचित संतुलन रखता है, वह श्रमण है। आचार्य हरिभद्र दशवैकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की तीसरी गाथा का मर्मोद्घाटन करते हुए श्रमण का अर्थ तपस्वी करते हैं। अर्थात् जो अपने ही श्रम से तपःसाधना से मुक्ति लाभ प्राप्त करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं। 'श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31