Book Title: Pratikraman Sambandhi Vishishta Marmsparshi Prashnottar
Author(s): Jagdishprasad Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ 15, 17 नवम्बर 2006 345 जिनवाणी व्यक्ति की दृष्टि स्वार्थपूर्ति, उदरपूर्ति से युक्त दृष्टिगोचर होती है और उस स्वार्थपूर्ति में जो वस्तु / व्यक्ति बाधक बनता है, साधक उसके साथ वैर (द्वेष) कर लेता है । इच्छापूर्ति के लिए वह क्या नहीं करता ? रथमूसल संग्राम इस बात का साक्षी है। पद्मावती की इच्छापूर्ति के लिए ( केवल एक हार - हाथी के लिए) कितना घोर घमासान ? उत्तराध्ययन सूत्र में बताया'लोभनिवृत्ति से ही संतोष की प्राप्ति होती है। यदि व्यक्ति संतोषी होगा तो न स्वार्थपूर्ति के लिए उसे इतना भटकना पड़ेगा और न ही इतना किसी से वैर होगा ? क्योंकि वैर तो स्वार्थपूर्ति में बाधक बनने वाले से होता है। यदि भटकन ही न होगी तो वैर या अड़चन कैसी? 'वेरं मज्झं ण केणइ' द्वारा साधक कहता है- मेरा किसी से कोई वैर नहीं है। मैंने संतोष को अपना लिया है, अब मेरे द्वारा दूसरों को पीड़ा हो, ऐसा कार्य कदापि नहीं होगा । 'संसार के संसरण को समाप्त करने का अभिलाषी सांसारिक विडम्बनाओं से ऊपर उठ आत्मभाव के धरातल पर प्रत्येक जीव में अपनत्व की अनादि से अननुभूत अनुभूति को कर आत्मविभोर हो- ‘वेरं मज्झं ण केणई' के उद्घोष को गुंजित करके ही साधना का प्रारम्भ करता है। जैसे मुझे अपने सुख में बाधा मंजूर नहीं है, वैसे ही सभी जीवों को भी । अतः वैर को जन्म देने वाले लोभ, लालसा, तृष्णा का त्यागकर मैं संतोष धारण करता हूँ और परिग्रह परिमाण (श्रावक के लिए), अपरिग्रह महाव्रत (साधु के लिए) को भी सार्थक करता हूँ। मेरे भीतर में वैर नहीं अर्थात् किसी के प्रति दुर्भाव का संग्रह - परिग्रह नहीं - लोभ लालसा नहीं । (८) रसोइये को अपने समान भोजन नहीं करा सकने वालों को, रसोइये से भोजन नहीं बनवाना चाहिए। लालसा भरी दृष्टि के कारण, उनका भोजन दूषित हो जाता है । व्याख्या - एकासन के प्रत्याख्यान में सागरियागारेणं भी एक आगार बताया ! सागारिकाकार का अर्थ - साधु के लिए गृहस्थ के भोजन के स्थान पर स्थित रहने पर अन्यत्र जाकर आहार करने का आगार और गृहस्थ के लिए जिसके सामने भोजन करना अनुचित हो, ऐसे व्यक्ति के भोजन स्थल पर आकर स्थित रहने पर अन्यत्र जाकर आहार करने का आगार । एकासन में भी यह आगार है, छूट है। यदि हम रसोइये को अपने समान भोजन नहीं करा सकते तो उससे आहार भी नहीं बनवाना चाहिए। क्योंकि उसकी दृष्टि लालसायुक्त होती है। वह सोचता है कि मालिक स्वयं तो सरस, गरिष्ठ, स्वादयुक्त आहार करता है और मुझे लूका-सूखा आहार देता है। आहार बनाते समय उसकी मानसिकता द्वेषयुक्त होती है। लालसा - तृष्णा तथा लोभयुक्त होती है। उसकी दृष्टि में एक प्रकार की हाय होती है और कभी-कभी तो वह दुराशीष भी दे बैठता है। वृद्ध अनुभवियों का भी कहना है कि 'जैसो खावे अन्न, वैसो होवे मन' उस दूषित आहार को ग्रहण करने से हमारी मानसिकता भी दूषित हो जाती है। एकासन में भी ऐसे व्यक्ति के सामने रहने पर स्थान परिवर्तन का आगार है । तो सामान्य स्थितियों में तो अपने समान भोजन नहीं करा सकने वालों को तो रसोइये से आहार बनवाना ही नहीं चाहिए, ऐसा आशय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31