Book Title: Pratikraman Sambandhi Vishishta Marmsparshi Prashnottar
Author(s): Jagdishprasad Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 15
________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी । संपादन कर लेता है। इससे राग-द्वेष का क्षय होकर भाव-विशुद्धि होती है और भाव विशुद्धि से व्यक्ति निर्भय हो जाता है। प्रश्न १२५ अतिचारों में से निम्नांकित कार्यों में मुख्य रूप से कौन सा अतिचार लगता है और क्यों? १. बिना पूँजे रात्रि में शयन करना २. बड़ों की अविनय आशातना करना ३. दीक्षार्थी के जुलूस को देखना ४. ताजमहल देखने जाना ५. निर्धारित समय पर निर्धारित घर में चाय लेने जाना ६. मनपसन्द वस्तु स्वाद लेकर खाना ७. चारों प्रहर में स्वाध्याय न करना ८. अयतना से बैठना ९. शीतल वायु के स्पर्श में सुख अनुभव करना। उत्तर सामान्य रूप से कथन- ज्ञान के १४, दर्शन के ५, संलेखना के ५, पाँच महाव्रतों की भावना के २५, रात्रि भोजन के २, ईर्या समिति के ४, भाषा समिति के २, एषणा समिति के ४७, आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति के २, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिंघाण -जल्ल परिष्ठापनिका समिति के १०, मनोगुप्ति के ३, वचन गुप्ति के ३, काय गुप्ति के ३(सरंभ, समारंभ और आरंभ तीनों में) कुल १२५ । (१) बिना पूँजे रात्रि में शयन करना- अतिचार संख्या २४वाँ (१००-१०१), निक्षेपणा समिति (११८-१२६) काय गुप्ति 'आदान भण्ड-मत्त निक्खेवणा समिई भावणा' संयमी को चाहिए कि संयम-साधना में उपयोगी उपकरणों को यतनापूर्वक ग्रहण करे एवं यतना पूर्वक रखे। बिना पूँजे रात्रि में शयन करने से छः काय की विराधना होने की संभावना रहती है। अतः साधक को अपने देह की एवं शय्या संस्तारक आदि की भी प्रतिलेखना कर ही शयन करना चाहिए, नहीं तो उसके अहिंसा महाव्रत में दोष लगता है। (आचारांग २-३-१ सूत्र ७१४ से भिक्खू वा बहुफासुर सेज्जासंथारए दुरूहमाणे से पुत्वामेव रासीसोवरियं कायं पार य पमज्जिय पमज्जित्ता तओ संजयामेव बहुफासए सिज्जासंथारा? दुरुहिज्जा दुरुहित्ता तओ संजयामेव बहुफासट सेज्जासंथारट साएज्जा) (२) बड़ों की अविनय आशातना करना- अतिचार संख्या ३४, विणय समिई भावणा। साधक को अपने गुरुजनों का, साधर्मिक साधु-साध्वियों का विनय करना चाहिए। विनय धर्म का मूल है, विनय तप भी है। दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमों में विनय को विशेष महत्त्व दिया है। यदि साधक भगवान् की आज्ञा की आराधना नहीं करता, तो उसके तीसरे महाव्रत में दोष लगता है। कहा भी है कि तीन वंदना भी यदि अविधि या अविनय से करे तो तीसरे महाव्रत में दोष लगता है। (३) दीक्षार्थी के जुलूस को देखना- अतिचार संख्या ४१ - चक्षुइन्द्रिय असंयम । साधक तो स्वकेन्द्रित होते हैं। संयम पथ पर बढ़ती हुई विरक्त आत्मा को देख अनुमोदना करते हैं। किन्तु जुलूस आदि देखने से मात्र चक्षु-इन्द्रिय का विषय पोषित होता है। परिग्रह, द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार का होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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