Book Title: Pratikraman Sambandhi Vishishta Marmsparshi Prashnottar
Author(s): Jagdishprasad Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 18
________________ 350 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 प्रतिपल के विकट जीवन संग्राम में उसे कहाँ आराम की फुर्सत है। कोमल शय्या का उपभोग करेगा तो अधिक देर तक आलस्य में पड़ा रहेगा । फलतः स्वाध्याय आदि धर्म क्रियाओं का भलीभाँति पालन न हो सकेगा। 'निगामसिज्जाए' का संस्कृत रूप 'निकामशय्या' है। जिसका अर्थ है- बार-बार अधिक काल तक सोते रहना । 'प्रकामशय्या' में सोने का उल्लेख है, किन्तु निकामशय्या में सोने के साथ प्रतिदिन और बार-बार शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है अर्थात् प्रकामशय्या का ही बार-बार सेवन करना, बारबार अधिक काल तक सोये रहना 'निकामशय्या' है। इससे प्रमाद की अधिक अभिवृद्धि होती है. आत्म-विस्मरण होता है। २. चरणसत्तरी एवं करणसत्तरी में अन्तर - चरणसत्तरी- चर्यतेऽनेनेति चरणम्। चरण का अर्थ चारित्र होता है । चारित्र का पालन प्रतिसमय होता है। एक प्रकार से चरण को नित्य क्रिया कह सकते हैं। इसके ७० भेद हैं यथा ५ महाव्रत, १० प्रकार का श्रमण धर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार की वैयावृत्त्य, ब्रह्मचर्य की ९ वाड़, ३ रत्न, १२ प्रकार का तप, ४ कषाय का निग्रह। इन ७० भेदों में से ५ महाव्रतादि का मूलगुण में समावेश होता है। करणसत्तरी- क्रियते इति करणम् । करण का अर्थ होता है- क्रिया करना। यह प्रयोजन होने पर की जाती है। प्रयोजन न होने पर न की जाए, अर्थात् जिस अवसर पर जो क्रिया करने योग्य है, उसे करना । करण नैमित्तिक क्रिया है। इसके भी ७० भेद हैं- ४ प्रकार की पिण्ड विशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ भिक्षु प्रतिमा, ५ इन्द्रियों का निरोध, २५ प्रकार की पडिलेहणा, ३ गुप्ति, ४ अभिग्रह = कुल ७०। स्वाध्याय तथा प्रतिलेखन उत्तर गुण हैं। अतः २५ प्रकार की पडिलेहणा का उत्तर गुण में समावेश होता है। ३. कायोत्सर्ग एवं कायक्लेश में भेद- उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३० में व्युत्सर्ग का एक ही प्रकार कायोत्सर्ग बताया है तथा तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन ९ में अनशनादि के विवेचन में बताया गया है कि व्युत्सर्ग को ही सामान्य रूप से कायोत्सर्ग कहा जाता है । व्युत्सर्ग आभ्यन्तर तप होने के कारण कायोत्सर्ग भी आभ्यन्तर तप है। आभ्यन्तर तप कर्मों की पूर्ण निर्जरा कराने में सक्षम है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३० तथा आवश्यक सूत्र का पाठ 'तस्स उत्तरीकरणेणं... पावाणं कम्माणं निग्धायणट्ठाए ठामि काउसग्गं ।' कर्म-निर्जरा के लिए, कर्मनाश के लिए कायोत्सर्ग होता है। कायोत्सर्ग का प्रयोजन कर्मनाश, दुःखमुक्ति या मोक्षप्राप्ति है काउसग्ग तओ..... सव्वदुक्ख विमोक्खणं । काय + उत्सर्ग काया का त्याग। निःसंगता, अनासक्ति, निर्भयता को हृदय में रमाकर देह, लालसा अथवा ममत्व का त्याग करना। वैसे कायोत्सर्ग एवं कायक्लेश दोनों में ही शरीर की आसक्ति को छोड़ना पड़ता है। लेकिन कायोत्सर्ग (भाव कायोत्सर्ग) में पूर्णरूपेण ममत्व का त्याग होता है, तभी जाकर धर्मध्यान, शुक्लध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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