Book Title: Pratikraman Sambandhi Vishishta Marmsparshi Prashnottar
Author(s): Jagdishprasad Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 16
________________ 348 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 है। उस दृश्य के प्रति लोभ ही खींचकर देखने के स्थान तक ले जाता है, लोभ से अपिरग्रह महाव्रत में दोष लगना सहज है। (४) ताजमहल देखने जाना- ४७वाँ अतिचार देखने जाने में तो ईर्या समिति का अतिचार है, क्योंकि ईर्ष्या का आलम्बन ज्ञान-दर्शन- चारित्र है- "तत्थ आलम्बणं नाणं दंसणं चरणं तहा" जबकि ताजमहल देखने के निमित्त जाने में एक भी आलम्बन सिद्ध नहीं होता तथा अतिचार संख्या १६ तथा ४१ कंखा तथा चक्षुइन्द्रिय असंयम भी लगते हैं। ताजमहल, कुतुबमीनार, हाथी दाँत की मूर्तियाँ, काँच के महल, सरोवर, पर्वत आदि देखना संयमी जीवन के लिए अनुचित कार्य हैं। साधक का जीवन रागप्रधान नहीं, वैराग्य प्रधान होता है। वैराग्यप्रधान जीवन में चक्षु-इन्द्रिय के विषय को पोषित करने वाले दृश्य तुच्छ प्रतीत होते हैं। साधक का लक्ष्य आत्मावलोकन है, बाह्य अवलोकन नहीं। बाहर के दृश्य के प्रति राग संयमी साधक के अपरिग्रह महाव्रत को तो दूषित करते ही हैं साथ में दर्शन में अर्थात् सम्यक्त्व में भी दोष लगाते हैं। बाह्य आडम्बर देखना, उनकी आकांक्षा करना, संयम के मूल दर्शन गुण में अतिचार का कारण होता है। साधक का जीवन कई भव्य आत्माओं द्वारा अनुकरणीय होता है। वे आत्माएँ साधक को ऐसा करते हुए देखेंगी तो उनके पवित्र हृदय में भी उस स्थान के प्रति श्रद्धा जग सकती है। अतः ऐसी अनुचित प्रवृत्ति से साधुत्व तो मलिन होता ही है, अन्यान्य जीवों को भी दिग्भ्रम होता है। (५) निर्धारित समय पर निर्धारित घर में चाय लेने जाना- अतिचार संख्या ५३ वाँ, साथ ही और भी कई.... साधक वर्ग मात्र संयम पालन के लिए आहार पानी ग्रहण करते हैं। ऐसे जीवन में चाय, काफी आदि तामसिक पदार्थो की तो कोई आवश्यकता ही नहीं होती। बीमारी आदि के समय उस अवस्था में इन पदार्थों की आवश्यकता हो सकती है, किन्तु नियमितता तथा निर्धारितता नहीं होती। यहाँ चाय के समान अन्य खाद्य पदार्थों को भी समझा जाए। यदि निर्धारित समय पर चाय आदि लेने जाए तो एषणा समिति के कई अतिचारों की संभावना रहती है। आधाकर्मी- गृहस्थ को पता रहेगा कि अभी साधु-साध्वी यह पदार्थ लेने आने वाले हैं तो वह स्वयं की आवश्यकता न होने पर भी उनके लिए बनाकर रखेगा। इसमें ठवणा की भी पूरी-पूरी संभावना रहती है। मिश्रजात - अध्यवपूरक जैसे कई अतिचारों की संभावना बनी हुई रहती है। स्वयं की लोभवृत्ति होने से रसनेन्द्रिय असंयम होगा और अखण्ड रूप से ग्रहण किये गये पहले व ५ वें महाव्रत में भी दोष लगेगा। स्वयं की लोभ प्रवृत्ति उत्पादना का भी दोष है। महाव्रतों, समिति आदि में दोष रूप थोड़ी सी चाय भारी कर्मबंध की हेतु बन सकती है। (६) मनपसंद वस्तु स्वाद लेकर खाना- अतिचार संख्या ४३ और ९८ स्पर्शनेन्द्रिय असंयम । साधक को आहार, रसनेन्द्रिय के विषय को वश में रखकर करना चाहिए' मनोज्ञ वस्तु मिलने पर उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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