Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ ३५२ जैन धर्म और दर्शन दोनों का समप्राधान्य तथा समान बलत्व होने के कारण दोनों में से कोई एक ही सत्य नहीं है अतएव उन दर्शनों में अवास्तववाद के प्रवेश की न योग्यता है और न संभव ही है । अतएव उनमें नागार्जुन शंकराचार्य आदि जैसे अनेक सूक्ष्मप्रज्ञ विचारक होते हुए भी वे दर्शन वास्तववादी ही रहे । यही स्थिति जैन दर्शन की भी है । जैन दर्शन द्रव्य द्रव्य के बीच विश्लेषण करते-करते अंत में सूक्ष्मतम पर्यायों के विश्लेषण तक पहुँचता है सही, पर यह विश्लेषण के अंतिम परिणाम स्वरूप पर्यायों को वास्तविक मानकर भी द्रव्य की वास्तविकता का परित्याग बौद्ध दर्शन की तरह नहीं करता। इस तरह वह पर्यायों और द्रव्यों का समन्वय करते करते एक सत् तत्त्व तक पहुँचता है और उसकी वास्तविकता को स्वीकार करके भी विश्लेषण के परिणाम स्वरूप द्रव्य भेदों और पर्यायों की वास्तविकता का परित्याग, बहावादी दर्शन की तरह नहीं करता। क्योंकि वह पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक दोनों दृष्टियों को सापेक्ष भाव से तुल्यबल और समान सत्य मानता है । यही सबब है कि उसमें भी न बौद्ध परंपरा की तरह श्रात्यन्तिक विश्लेषण हुआ और न वेदान्त परंपरा की तरह आत्यन्तिक समन्वय । इससे जैन दृष्टि का वास्तववादित्य स्वरूप स्थिर ही रहा । ३. प्रमाण शक्ति की मर्यादा विश्व क्या वस्तु है, वह कैसा है, उसमें कौन-से-कौन-से और कैसे-कैसे तत्त्व हैं, इत्यदि प्रश्नों का उत्तर तत्व चिन्तकों ने एक ही प्रकार का नहीं दिया । इसका सबब यही है कि इस उत्तर का आधार प्रमाण की शक्ति पर निर्भर है और तत्त्वचिंतकों में प्रमाण की शक्ति के बारे में नाना मत हैं। भारतीय तत्त्वचिंतकों का प्रमाण शक्ति के तारतम्य संबंधी मतभेद संक्षेप में पाँच पक्षों में विभक्त हो जाता है--- १ इन्द्रियाधिपत्य, २ अनिन्द्रियाधिपत्य, ३ उभयाधिपत्य, ४ अागमाधिपत्य, ५ प्रमाणोपप्लव । १-जिस पक्ष का मंतव्य यह है कि प्रमाण की सारी शक्ति इन्द्रियों के ऊपर ही अवलम्बित है, मन खुद इन्द्रियों का अनुगमन कर सकता है पर वह इन्द्रियों की मदद के सिवाय कहीं भी अर्थात् जहाँ इन्द्रियों की पहुंच न हो वहाँ कभी प्रवृत्त होकर सच्चा ज्ञान पैदा कर ही नहीं सकता। सच्चे ज्ञान का अगर संभव है तो इन्द्रियों के द्वारा ही, वह इन्द्रियाधिपत्य पक्ष । इस पक्ष में चार्वाक दर्शन ही समाविष्ट है। यह नहीं कि चार्वाक अनुमान या शब्दव्यवहार रूप अागम आदि प्रमाणों को जो प्रतिदिन सर्वसिद्ध व्यवहार की वस्तु है, उसे न मानना हो फिर भी चार्वाक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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