Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ जैन दृष्टि की अपरिवर्तिष्णुता ३५१ दृष्टि के वास्तववादित्व स्वरूप में एक अंश भी फर्क नही पड़ा है जैसा कि बौद्ध और वेदांत परंपरा में हम पाते हैं । बौद्ध परंपरा शुरू में वास्तववादी ही रही पर महायान की विज्ञानवादी और शून्यवादी शाखा ने उसमें आमूल परिवर्तन कर डाला । उसका वास्तववादित्व ऐकान्तिक वास्तववादित्व में बदल गया । यही है बौद्ध परंपरा का दृष्टि परिवर्तन | वेदान्तपरंपरा में भी ऐसा ही हुआ । उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र में जो वास्तववादित्व के अस्पष्ट बीज थे और जो वास्तववादित्व के स्पष्ट सूचन थे उन सब का एकमात्र अवास्तववादित्व अर्थ में तात्पर्य बतलाकर शंकराचार्य ने वेदांत में वास्तववादित्व की स्पष्ट स्थापना की जिसके ऊपर आगे जाकर दृष्टिसृष्टिबाद आदि अनेक रूपों में और भी दृष्टि परिवर्तन व विकास हुआ । इस तरह एक तरफ बौद्ध और वेदान्त दो परंपराओं की दृष्टि परिवर्तिष्णुता और बाकी के सब दर्शनों की दृष्टि अपरिवर्तिष्णुता हमें इस भेद के कारणों की खोज की ओर प्रेरित करती है । स्थूल जगत को सत्य या व्यावहारिक सत्य मानकर उससे भिन्न आंतरिक जगत को ही परम सत्य माननेवाले वास्तववाद का उद्गम सिर्फ तभी संभव है जब कि विश्लेषण क्रिया की पराकाष्ठा आत्यन्तिकता हो या समन्वय की पराकाष्ठा हो । हम देखते हैं कि यह योग्यता बौद्ध परंपरा और वेदान्त परंपरा के सिवाय अन्य किसी दार्शनिक परंपरा में नहीं है । बुद्ध ने प्रत्येक स्थूल सूक्ष्म भाव का विश्लेषण यहाँ तक किया कि उसमें कोई स्थायी द्रव्य जैसा तत्त्व शेष न रहा । उपनिषदों में भी सब भेदों का विविधताओं का समन्वय एक ब्रह्म - स्थिर तत्त्व में विश्रान्त हुआ । भगवान बुद्ध के विश्लेषण को आगे जाकर उनके सूक्ष्मप्रज्ञ शिष्यों ने यहाँ तक विस्तृत किया कि अन्त में व्यवहार में उपयोगी होनेवाले अखण्ड द्रव्य या द्रव्य भेद सर्वथा नाम शेष हो गए । क्षणिक किन्तु अनिर्वचनीय परम सत्य ही शेष रहा। दूसरी ओर शंकराचार्य ने औपनिषद परम ब्रह्म की समन्वय भावना को यहाँ तक विस्तृत किया कि अन्त में भेदप्रधान व्यवहार जगत नामशेष या मायिक ही होकर रहा । बेशक नागार्जुन और शकराचार्य जैसे ऐकान्तिक विश्लेषणकारी या ऐकान्तिक समन्वयकर्ता न होते तो इन दोनों परंपराओं में व्यावहारिक और परमसत्य के भेद का आविष्कार न होता । फिर भी हमें भूलना न चाहिए कि वास्तववादी दृष्टि की योग्यता बौद्ध और वेदांत परंपरा की भूमिका में ही निहित रही जो न्याय वैशेषिक आदि वास्तववादी दर्शनों की भूमिका में बिलकुल नहीं है । न्याय वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य- योग दर्शन केवल विश्लेही नहीं करते बल्कि समन्वय भी करते हैं । उनमें विश्लेषण और समन्वय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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