Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 18
________________ ३६६ जैन धर्म और दर्शन विद्यानंद अकलङ्क के ही सूक्तों पर या तो भाष्य रचते हैं या पद्यवार्तिक बनाते हैं या दूसरे छोटे २ अनेक प्रकरण बनाते हैं । अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र और वादिराज जैसे तो अकलङ्क के संक्षिप्त सूक्तों पर इतने बड़े और विशद तथा जटिल भाष्य व विवरण कर डालते हैं कि जिससे तब तक में विकसित दर्शनांतरीय विचार परंपराओं का एक तरह से जैन वाङ्मय में समावेश हो जाता है। दूसरी तरफ श्वेताम्बर परंपरा के प्राचाय भी उसी अकलङ्क स्थापित प्रणाली की ओर झुकते हैं। हरिभद्र जैसे आगमिक और तार्किक ग्रन्थकार ने तो सिद्धसेन और समंतभद्र आदि के मार्ग का प्रधानतया अनेकांतजयपताका आदि में अनुसरण किया पर धीरे २ न्याय-प्रमाण विषयक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रणयन की प्रवृत्ति भी श्वेताम्बर परंपरा में शुरू हुई। श्वेताम्बर प्राचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार रचा था। पर वह निरा प्रारम्भ मात्र था । अकलङ्क ने जैन न्याय की सारी व्यवस्था स्थिर कर दी। हरिभद्र ने दर्शनांतरीय सब वार्तात्रों का समुच्चय भी कर दिया । इस भूमिका को लेकर शांत्याचार्य जैसे श्वेताम्बार तार्किक ने तर्कवार्तिक जैसा छोटा किन्तु सारगर्भ ग्रन्थ रचा। इसके बाद तो श्वेताम्बर परंपरा में न्याय और प्रमाण ग्रन्थों के संग्रह का, परिशीलन का और नए नए ग्रन्थ निर्माण का ऐसा पूर पाया कि मानों समाज में तब तक ऐसा कोई प्रतिष्ठित विद्वान् ही न समझा जाने लगा जिसने संस्कृत भाषा में खास कर तर्क या प्रमाण पर मूल या टीका रूप से कुछ न कुछ लिखा न हो। इस भावना में से ही अभयदेव का वादार्णव तैयार हुश्रा जो संभवतः तब तक के जैन संस्कृत ग्रन्थों में सब से बड़ा है। पर जैन परंपरा पोषक गुजरात गत सामाजिक-राजकीय सभी बलों का सब से अधिक उपयोग वादिदेव सूरि ने किया। उन्होंने अपने ग्रंथ का स्याद्वादरत्नाकर यथार्थ ही नाम रखा । क्योंकि उन्होंने अपने समय तक में प्रसिद्ध सभी श्वेताम्बर-दिगम्बरों के तार्किक विचारों का दोहन अपने ग्रंथ में रख दिया जो स्याद्वाद ही था। साथ ही उन्होंने अपनी जानीव से ब्राह्मण और बौद्ध परंपरा की किसी भी शाखा के मंतव्यों की विस्तृत चर्चा अपने ग्रंथ में न छोड़ी। चाहे विस्तार के कारण वह ग्रंथ पाठ्य रहा न हो पर तर्क शास्त्र के निर्माण में और विस्तृत निर्माण में प्रतिष्ठा माननेवाले जैनमत की बदौलत एक रत्नाकर जैसा समग्र मंतव्यरत्नों का संग्रह बन गया जो न केवल तत्त्वज्ञान की दृष्टि से ही उपयोगी है पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़े महत्त्व का है। आगमिक साहित्य के प्राचीन और अति विशाल खजाने के उपरांत तत्त्वार्थ से लेकर स्याद्वादरत्नाकर तक के संस्कृत व तार्किक जैन साहित्य की भी बहुत बड़ी राशि हेमचन्द्र के परिशीलन पथ में आई जिससे हेमचन्द्र का सर्वाङ्गीण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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