Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 24
________________ ३७२ जैन धर्म और दर्शन ७-अवयवों की प्रायोगिक व्यवस्था--- परार्थानुमान के अवयवों की संख्या के विषय में भी प्रतिद्वन्द्वीभाव प्रमाण क्षेत्र में कायम हो गया था । जैन तार्किकों ने उस विषय के पक्षभेद की यथार्थताअयथार्थता का निर्णय श्रोता की योग्यता के आधार पर ही किया, जो वस्तुतः सच्ची कसौटी हो सकती है। इस कसौटी में से उन्हें अवयव प्रयोगकी व्यवस्था ठीक २ सूझ आई जो वस्तुतः अनेकान्त दृष्टिमूलक होकर सर्व संग्राहिणी है और वैसी स्पष्ट अन्य परम्पराओं में शायद ही देखी जाती है । ८-कथा का स्वरूप श्राध्यात्मिकता मिश्रित तत्त्वचिंतन में भी साम्प्रदायिक बुद्धि दाखिल होते ही उसमें से आध्यात्मिकता के साथ असंगत ऐसी चर्चाएँ जोरों से चलने लगी, जिनके फलस्वरूप जल्प और वितंडा कथा का चलाना भी प्रतिष्ठित समझा जाने लगा जो छल, जाति आदि के असत्य दाव-पेचों पर निर्भर था। जैन तार्किक साम्प्रदायिकता से मुक्त तो न थे, फिर भी उनकी परंपरागत अहिंसा व वीतरागत्व की प्रकृति ने उन्हें वह असंगति सुझाई जिससे प्रेरित होकर उन्होंने अपने तर्कशास्त्र में कथा का एक वादात्मक रूप ही स्थिर किया, जिसमें छल आदि किसी भी चालबाजी का प्रयोग वयं है और जो एक मात्र तत्त्व जिज्ञासा की दृष्टि से चलाई जाती है। अहिंसा की प्रात्यन्तिक समर्थक जैन परंपरा की तरह बौद्ध परंपरा भी रही, फिर भी छल आदि के प्रयोगों में हिंसा देखकर निंद्य ठहराने का तथा एक मात्र वाद कथा को ही प्रतिष्ठित बनाने का मार्ग जैन तार्किकों ने प्रशस्त किया, जिसकी ओर तत्त्व-चिन्तकों का लक्ष्य जाना जरूरी है। ह-निग्रहस्थान या जयपराजय व्यवस्था - वैदिक और बौद्ध परंपरा के संघर्ष ने निग्रह स्थान के स्वरूप के विषय में विकाससूचक बड़ी ही भारी प्रगति सिद्ध की थी। फिर भी उस क्षेत्र में जैन तार्किकों ने प्रवेश करते ही एक ऐसी नई बात सुझाई जो न्यायविकास के समग्र इतिहास में बड़े मार्के की और अब तक सबसे अन्तिम है। वह बात है जय-पराजय व्यवस्था का नया निर्माण करने की । वह नया निर्माण सत्य और अहिंसा दोनों तत्त्वों पर प्रतिष्ठित हुआ जो पहले की जय-पराजय व्यवस्था में न थे। १०–प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप . प्रमेय जड़ हो या चेतन, पर सत्र का स्वरूप जैन तार्किकों ने अनेकान्त दृष्टि . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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