Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 23
________________ प्रमाणशास्त्र को देन ४ - इन्द्रिय ज्ञान का व्यापारक्रम सर्व दर्शनों में एक या दूसरे रूप में थोड़े या बहुत परिमाण में ज्ञान व्यापार का क्रम देखा जाता है । इसमें ऐन्द्रियक ज्ञान के व्यापार क्रम का भी स्थान है । परन्तु जैन परंपरा में सन्निपातरूप प्राथमिक इन्द्रिय व्यापार से लेकर अन्तिम इन्द्रिय व्यापार तक का जिस विश्लेषण और जिस स्पष्टता के साथ अनुभव सिद्ध प्रतिविस्तृत वर्णन है वैसा दूसरे दर्शनों में नहीं देखा जाता । यह जैन वर्णन है तो अति पुराना और विज्ञान युग के पहिले का, फिर भी आधुनिक मानस शास्त्र तथा इन्दिय - व्यापारशास्त्र के वैज्ञानिक अभ्यासियों के वास्ते यह बहुत महत्त्व का है । ३७१ ५ - परोक्ष के प्रकार केवल स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और श्रागम के ही प्रामाण्य - श्रप्रामाण्य मानने में मतभेदों का जंगल न था; बल्कि अनुमान तक के प्रामाण्य श्रप्रामाण्य में विप्रतिपत्ति रही । जैन तार्किकों ने देखा कि प्रत्येक पक्षकार अपने पक्ष को आत्यन्तिक खींचने में दूसरे पक्षकार का सत्य देख नहीं पाता । इस विचार में से उन्होंने उन सब प्रकार के ज्ञानों को प्रमाण कोटि में दाखिल किया जिनके बल पर वास्तविक व्यवहार चलता है और जिनमें से किसी एक का अपलाप करने पर तुल्य युक्ति से दूसरे का अपलाप करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसे सभी प्रमाण प्रकारों को उन्होंने परोक्ष में डालकर अपनी समन्वय दृष्टि का परिचय कराया' । Jain Education International ६ - हेतु का रूप हेतु के स्वरूप के विषय में मतभेदों के अनेक अखाड़े कायम हो गए थे। इस युग में जैन तार्किकों ने यह सोचा कि क्या हेतु का एक ही रूप ऐसा मिल सकता है या नहीं जिस पर सत्र मतभेदों का समन्वय भी हो सके और जो वास्तविक भी हो। इस चिन्तन में से उन्होंने हेतु का एक मात्र अन्यथानुपपत्ति रूप निश्चित किया जो उसका निर्दोष लक्षण भी हो सके और सब मतों के समन्वय के साथ जो सर्वमान्य भी हो। जहाँ तक देखा गया है हेतु के ऐसे एक मात्र तात्त्विक रूप के निश्चित करने का तथा उसके द्वारा तीन, चार, पाँच और छः, पूर्व प्रसिद्ध हेतु रूपों के यथासंभव स्वीकार का श्रेय जैन तार्किकों को ही है । १ प्रमाण मीमांसा १-२-२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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