Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 17
________________ जैनसाहित्य के युग ३- न्याय-प्रमाण स्थापन युग उसी परिस्थिति में से कलंक जैसे धुरंधर व्यवस्थापक का जन्म हुआ । सम्भवतः अकलंक ने ही पहले पहल सोचा कि जैन परंपरा के ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता आदि सभी पदार्थों का निरूपण तार्किक शैली से संस्कृत भाषा में वैसा ही शास्त्रबद्ध करना आवश्यक है जैसा ब्राह्मण और बौद्ध परंपरा के साहित्य में बहुत पहले से हो गया है और जिसका अध्ययन अनिवार्य रूप से जैन तार्किक करने लगे हैं । इस विचार से कलङ्क ने द्विमुखी प्रवृत्ति शुरू की। एक तो बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सूक्ष्म परिशीलन और दूसरी ओर समस्त जैन मंतव्यों का तार्किक विश्लेषण । केवल परमतों को निरास करने ही से कलङ्क का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता था । श्रतएव दर्शनांतरीय शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलन में से और जैनमत के तलस्पर्शी ज्ञान से उन्होंने छोटे-छोटे पर समस्त जैन तर्क प्रमाण के शास्त्र के आधारस्तम्भभूत अनेक न्याय प्रमाण विषयक प्रकरण रचे जो दिङ्नाग और खासकर धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध तार्किकों के तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि जैसे ब्राह्मरण तार्किकों के प्रभाव से भरे हुए होने पर भी जैन मंतव्यों की बिलकुल नए सिरे और स्वतंत्र भाव से स्थापना करते हैं । कलंक ने न्याय प्रमाणशास्त्र का जैन परंपरा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, जो लक्षण व परिक्षण किया, जो प्रमाण, प्रमेय आदि का वर्गीकरण किया और परार्थानुमान तथा वादकथा यदि परमत प्रसिद्ध वस्तुत्रों के संबंध में जो जैन-प्रणाली स्थिर की, संक्षेप में अब तक में जैन परंपरा में नहीं पर अन्य परंपराओं में प्रसिद्ध ऐसे तर्कशास्त्र के अनेक पदार्थों को जैनदृष्टि से जैन परंपरा में जो सात्मीभाव किया तथा श्रागमसिद्ध अपने मंतव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब छोटे-छोटे ग्रंथों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय प्रमाण स्थापन युग का द्योतक है। कलङ्क के द्वारा प्रारब्ध इस युग में साक्षात् या परंपरा से अकलङ्क के शिष्य-प्रशिष्यों ने ही उनके सूत्र स्थानीय ग्रंथों को बड़े-बड़े टीका ग्रंथों से वैसे ही अलंकृत किया जैसे धर्मकीर्ति के ग्रंथों को उनके शिष्यों ने I ३६५ अनेकांत युग की मात्र पद्यप्रधान रचना को कलङ्क ने गद्य-पद्य में परिवर्तित किया था पर उनके उत्तरवर्ती अनुगामियों ने उस रचना को नाना रूपों में परिवर्तित किया, जो रूप बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा में प्रतिष्ठित हो चुके थे । माणिक्यनंदी कलङ्क के ही विचार दोहन में से सूत्रों का निर्माण करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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