Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 19
________________ प्रमाणमीमांसा ३६७ सर्जक व्यक्तित्व संतुष्ट होने के बजाय एक ऐसे नए सर्जन की ओर प्रवृत्त हुआ जो तब तक के जैन वाङ्मय में पूर्व स्थान रख सके । दिङ्नाग के न्यायमुख, न्यायप्रवेश आदि से प्रेरित होकर सिद्धसेन ने जैन परंपरा में न्याय- परार्थानुमान का अवतार कर ही दिया था। समंतभद्र ने अक्षपाद के प्राचादुकों (अध्याय चतुर्थ ) के मतनिरास की तरह श्रास की मीमांसा के बहाने सप्तभंगी की स्थापना में परप्रवादियों का निरास कर ही दिया था । तथा उन्होंने जैनेतर शासनों से जैन शासन की विशेष सयुक्तिकता का अनुशासन भी युक्त्यनुशासन में कर ही दिया था। धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय श्रादि से बल पाकर तीक्ष्ण दृष्टि कलङ्क ने जैन न्याय का विशेषनिश्चयव्यवस्थापन तथा जैन प्रमाणों का संग्रह अर्थात् विभाग, लक्षण श्रादि द्वारा निरूपण अनेक' तरह से कर दिया था । कलङ्क ने सर्वज्ञत्व जीवत्व आदि की सिद्धि के द्वारा धर्मकीर्ति जैसे प्राज्ञ बौद्धों को जवाब भी दिया था । सूक्ष्मप्रश विद्यानंद ने की, पत्र की और प्रमाणों की परीक्षा द्वारा धर्मकीर्ति की तथा शांतरक्षित की विविध परीक्षाओं का जैन परंपरा में सूत्रपात भी कर ही दिया था । माणिक्यनंदी ने परीक्षामुख के द्वारा न्यायविंदु के से सूत्रग्रंथ की कमी को दूर कर ही दिया था । जैसे धर्मकीर्ति के अनुगामी विनीतदेव, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, र्च आदि प्रखर तार्किकों ने उनके सभी मूल ग्रंथों पर छोटे-बड़े भाष्य या विवरण लिखकर उनके ग्रंथों को पठनीय तथा विचारणीय बनाकर बौद्ध न्यायशास्त्र को प्रकर्ष की भूमिका पर पहुँचाया था वैसे ही एक तरफ से दिगम्बर परंपरा में अलङ्क के संक्षित पर गहन सूक्तों पर उनके अनुगामी अनंतवीर्य, विद्यानंद, प्रभाचंद्र और वादिराज जैसे विशारद तथा पुरुषार्थी तार्किकों ने विस्तृत व गद्दन भाष्य-विवरण आदि रचकर जैन न्याय शास्त्र को अतिसमृद्ध बनाने का सिलसिला भी जारी कर ही दिया था और दूसरी तरफ से श्वेताम्बर परंपरा में सिद्धसेन के संस्कृत तथा प्राकृत तर्क प्रकरणों को उनके अनुगामियों ने टीकाग्रंथों से भूषित करके उन्हें विशेष सुगम तथा प्रचारणीय बनाने का भी प्रयत्न इसी युग में शुरू किया था। इसी सिलसिले में से प्रभाचंद्र के द्वारा प्रमेयों के कमल पर मार्तण्ड का प्रखर प्रकाश तथा न्याय के कुमुदों पर चंद्र का सौम्य प्रकाश डाला ही गया था । अभयदेव के द्वारा तत्त्वबोधविधायिनी टीका या वादार्णव रचा जाकर तत्त्वसंग्रह तथा प्रमाणवार्तिकालंकार जैसे बड़े ग्रंथों के प्रभाव की पूर्ति की गई थी । वादिदेव ने रत्नाकर रचकर उसमें सभी पूर्ववर्ती जैनग्रंथरत्नों का पूर्णतया संग्रह कर दिया था । यह सब हेमचंद्र के सामने था । पर उन्हें मालूम हुआ कि उस न्याय प्रमाण विषयक साहित्य में कुछ भाग तो ऐसा है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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