Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 2
________________ आचार्य प्रभाव समय श्रीआनन्द श्रीआनन्द "I N MAYATiwwvvvivirwwpwwwindutvNI-VIImavivaavywe ४ प्राकृत भाषा और साहित्य - वैदिक युग से पूर्ववर्ती भी कोई रूप भी रहे होंगे, जिनके विकास के रूप में इनका उद्भव हुआ। वैदिककाल के पूर्व की ओर समवर्ती जनभाषाओं को सर जार्ज ग्रियर्सन ने प्राथमिक प्राकृतों (Primary Prakritas) के नाम से उल्लिखित किया है। इनका समय २००० ई० पूर्व से ६०० ई० पूर्व तक माना जाता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये प्राथमिक प्राकृतें स्वरों एवं व्यंजनों के उच्चारण, विभक्तियों के प्रयोग आदि में वैदिक भाषा से बहत समानताएँ रखती थीं। इन भाषाओं से विकास पाकर उत्तरवर्ती प्राकृतों का जो साहित्यिक रूप अस्तित्व में आया, उससे यह प्रमाणित होता है। पतंजलि की ध्वनियों में महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में व्याकरण या शब्दानुशासन के प्रयोजनों की चर्चा के सन्दर्भ में शुद्ध शब्दों तथा दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की चर्चा की है। दुष्ट शब्दों के प्रयोग से बचने और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करने पर जोर देते हुए उन्होंने निम्नांकित श्लोक उपस्थित किया है "यस्तु प्रयुङक्त कुशलो विशेषे, शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले। सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र, वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ॥"" अर्थात जो शब्दों के प्रयोग को जानता है, वैसा करने में कुशल है, वह व्यवहार के समय उनका यथोचित प्रयोग करता है, वह परलोक में अनन्त जय-उत्कर्ष-अभ्युदय प्राप्त करता है। जो अपशब्दों का प्रयोग करता है, वह दूषित-दोष भागी होता है। आगे वे दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की ओर संकेत करते हुए कहते हैं-एक-एक शब्द के बहत से अपभ्रंश हैं। जैसे गो शब्द के गावी, गोणी, गोपोतलिका इत्यादि हैं। यहाँ अपभ्रंश शब्द का प्रयोग उन भाषाओं के अर्थ में नहीं है, जो पांचवीं शती से लगभग दशवीं शती तक भारत (पश्चिम, पूर्व, उत्तर और मध्यमण्डल) में प्रसृत रहीं, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकसित थीं । यहाँ अपभ्रंश का प्रयोग संस्कृतेतर लोकभाषाओं, जिन्हें उस काल की प्राकृतें कहा जा सकता है, के शब्दों के लिए है। ऐसा प्रतीत होता है, तब लोकभाषाओं के प्रसार और प्रयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक हो चला हो । उनके शब्द सम्भवत: वैदिक और लौकिक संस्कृत में प्रवेश पाने लग गये हों। अतः भाषा की शुद्धि के पक्षपाती पुरोहित विद्वान् उस पर रोक लगाने के लिए बहुत प्रयत्नशील हए हों। पतंजलि के विवेचन की ध्वनि कुछ इसी प्रकार की प्रतीत होती है। वे (पतंजलि) कुछ आगे और कहते हैं- "सुना जाता है कि 'यर्वाण-तर्वाण' नामक ऋषि थे। वे प्रत्यक्ष धर्माधर्म का साक्षात्कार किये हुए थे। पर और अपर-परा और अपरा विद्या के ज्ञाता थे। Ipa १. महाभाष्य, प्रथम आन्हिक, पृष्ठ ७ २. एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः । तद्यथा गौरित्येतस्य शब्दस्य गावी, गोणी, गोपोतलिके त्येवमादयोऽपभ्रंशाः। -महाभाष्य, प्रथम आन्हिक पृष्ठ ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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