Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02 Author(s): Amarmuni Publisher: Veerayatan View full book textPage 9
________________ श्री नवलमल फिरोदिया जी मनोगत भौतिक विज्ञान ने नेत्रदीपक प्रगति की है। विज्ञान की हर एक करामात प्रयोगसिद्ध है। अतः धार्मिक, नैतिक, सामाजिक मान्यताएँ जब बुद्धि की अथवा अनुभूति की कसौटी पर नहीं उतरती तो आधुनिक जगत उनपर विश्वास रखने को अथवा उनको मानने को तैयार नहीं होता। ___ इसी प्रेक्ष में जैन समाज में भी शिक्षित एवं युवा पीढ़ी अर्थहीन परंपराएँ, क्रिया-कांड अथवा मान्यताओं के प्रति सर्वथा उदासीन है। इसका दायित्व अहंमन्य धर्मप्रमुखों की वैचारिक प्रतिबद्धता और जड़ता पर है। अपनी सांप्रदायिक प्रतिष्ठा और सस्ती लोकप्रियता बनी रहे, इसलिये वे अपने अनुयायिओं की अंधश्रद्धा का पोषण कर उनके अज्ञान को सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं। वे शास्त्र वचनों के आधार का आविर्भाव करते हैं, परन्तु शास्त्र किसको मानना चाहिए, शास्त्र की परिभाषा क्या है, शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय क्या है, इनकी प्रमाणित, तर्कसंगत तथा तत्त्वसंगत चर्चा करना टालते हैं। आचार तथा विचारों में क्या श्रेय है, क्या हेय है, ऐसे प्रश्न अनेकानेक बार भूतकाल में उपस्थित हुये, वर्तमान में भी हैं, और भविष्य में भी होते रहेंगे। इनका निर्णय कैसे किया जाय? क्या परंपरा और मान्यताओं के आधार पर किया जाय? क्या संदर्भ रहित शास्त्र वचनों के आधार पर किया जाय? । भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही श्रावस्ती नगरी में पार्श्वनाथ परंपरा के चतुर्थ पट्टधर केशी कुमार श्रमण ने गणधर गुरु गौतम के सामने ऐसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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