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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
एक शब्द कभी-कभी दो संख्याओं का भी बोध कराता है, जैसे 'शरगगनमनुमिताब्दे' में मनु १४ का बोध कराता है । इस प्रकार की कालगणना पद्धति का अनुसरण मेरुतुङ्ग ने नहीं किया है, परन्तु राजशेखरसूरि ने किया है । इस प्रकार कालक्रम की चारों पद्धतियों का अस्तित्व यह प्रदर्शित करता है कि राजशेखर कालक्रमीय तथ्यों की सटीकता के प्रति अधिक सतर्क था ।
राजशेखर ने कालक्रम के सम्बन्ध में कहीं-कहीं अत्यधिक सावधानी बरती है और विक्रमी संवत्सर को शब्दों और अङ्कों दोनों में एक साथ प्रदान किया है । राजशेखर चर्चा करता है कि " साधु पूनड ने शत्रुञ्जय की यात्रा बारह सौ तिहत्तर (१२७३ ) में बम्बेरपुर से तथा बारह सौ छियासी ( १२८६ ) में नागपुर से आरम्भ की थी । " साधु पूनड़ की शत्रुञ्जय यात्रा के सम्बन्ध में शब्दों और अकों दोनों में एक साथ तिथियाँ प्रदान की गयी हैं परन्तु आदिनाथ की प्रतिष्ठा तिथि केवल शब्दों में दी गयी है । "विक्रमादित्य से एकसहस्र के ऊपर अट्ठासी वर्ष व्यतीत हो जाने पर चार सूरियों द्वारा आदिनाथ की प्रतिष्ठा की गयी । " यहाँ पर राजशेखर ने जो शत्रुञ्जय तीर्थयात्रा की तिथि प्रदान की है, वह केवल शब्दों में है जो वि० सं० १०८८ तदनुसार १०३१ ई० हुई । फलतः राजशेखर द्वारा प्रदत्त अधिकांश कालक्रम साहित्यिक व अभिलेखीय स्रोतों से प्राप्त विवरणों से प्रायः मेल खाते हैं । जब इन तिथियों का किसी अन्य ग्रन्थ की तिथियों से साम्य हो तो हमें ऐतिहासिक दृष्टि से इन्हें सही मान लेना चाहिये ।
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है । ये शब्द "युग - दहन - -रस-क्षमा हैं, जो १६३४ की तिथि प्रदान करते हैं, क्योंकि क्षमा = पृथ्वी १, रस ६, दहन = कृतिका नक्षत्र ३ और युग ४ हैं ।"
१. " तेन प्रथमं श्रीशत्रुञ्जये यात्रा त्रिसप्तत्यधिकद्वादशशतवर्षे ( १२७३ ) बम्बेरपुरात् विहिता । द्वितीय सुरत्राणादेशात् षडशीत्यधिके द्वादशशतसङ्ख्ये ( १२८६ ) वर्षे नागपुरात्कर्तुमारब्धा ।" प्रको, पृ० ११८ । २. "विक्रमादित्यात् सहस्रोपरि वर्षाणामष्ठाशीतो गतायां चतुभिः सूरिभिरादिनाथं प्रत्यतिष्ठिपत् ।" वही, पृ० १२१ ।
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