Book Title: Paryushan Ek Aetihasik Samiksha Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 2
________________ परन्तु सत्य यह है कि परम्पराएँ अनादि नहीं हैं। वे तो बनती हैं, बिगड़ती हैं, सँवरती हैं, और फिर बिगड़ली हैं। मोड़ लेती हैं, बल खाती हैं, और एकदिन कहीं-से-कहीं पहुँच जाती हैं। कुछ का निर्दिष्ट काल बदल जाता है, और कुछ का तो स्वरूप ही बदल जाता है। और हम हैं इस बदले हुए स्वरूप को ही सनातन सत्य मान लेते हैं। धर्म परम्पराएँ स्वयं धर्म नहीं हैं धर्मपरम्पराए धार्मिक रीति-रिवाज हैं, अमुक अपेक्षा से धर्म की संदेश-वाहक हैं, प्रेरक हैं, किन्तु वे स्वयं में धर्म नहीं हैं। धर्म अनादि है, अनंत भी है। धर्म का न कभी जन्म होता है, न कभी मरण होता है। वह सदा एकरस एवं अखण्डस्वरूप रहता है। वह अंदर के चैतन्य का सहज शुद्ध भाव है, स्व-स्वभाव है, अतः वह परिस्थितिवश दब सकता है, किन्तु कभी विनष्ट नहीं हो सकता। हाँ, धार्मिक परम्पराएँ देशकालानुसार जन्म लेती हैं, बदलती भी हैं; और कभी-कभी अनुपयोगी हो जाने के कारण मर भी जाती हैं। स्पष्ट है कि परम्पराएँ अनादि नहीं हैं, अपरिवर्तित भी नहीं है। परम्पराओं का शरीर बाह्य विधिनिषेधों का शरीर है। और वह बाह्य विधिनिषेध बदलते रहते हैं। समयानुसार विधि, निषेध बन जाता है और निषेध, विधि। पर्युषण सम्बन्धी मेरा लेख गत पर्युषण पर्व पर 'अमर भारती' में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था। उसमें पर्युषण पर्व के अतीत और वर्तमान की चर्चा थी। बताया गया था कि पर्युषण पर्व प्राचीन काल में आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था। वह मूल में वर्षावास के रूप में था, साथ ही वार्षिक आलोचना भी थी। यह उत्सर्ग विधान था। किन्तु यदि अनुकूल एवं निर्दोष क्षेत्र तथा निवासस्थान न मिले, तो पाँच-पाँच दिन की वृद्धि के क्रम से अंततोगत्वा भाद्रपद शुक्ला पंचमी को तो पर्युषण कर ही लेना चाहिए, भले ही किसी वृक्ष के नीचे भी क्यों न करना पड़े। जघन्य 70 दिन का पर्युषण अर्थात् वर्षावास तो होना ही चाहिए। यह सब मेरा मनः कल्पित नहीं था, इसके लिए मैंने महान् श्रुतधर आचार्यों के प्रमाण दिए थे, उनके तत्कालीन ग्रन्थों के शब्दपाठ उद्धृत किए थे। वह एक विशुद्ध ऐतिहासिक चर्चा थी, और कुछ नहीं। आज के युग में इस प्रकार की चर्चाएँ प्रायः प्रत्येक संप्रदाय में होती पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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