Book Title: Paryushan Ek Aetihasik Samiksha
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 17
________________ आषाढ़ चातुर्मासी ही माना है, जैसा कि हम पीछे वह उद्धरण दे आए हैं-पर्युषणातः परं-आषाढ़चतुर्मासकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीया:....।" क्षेत्रादि के अभाव में पर्युषण के लिए पाँच-पाँच दिन की अभिवृद्धि करते हुए अंत में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को आपवादिक पर्युषण की प्राचीन परंपरा का उल्लेख श्री विनय विजयजी ने सुबोधिका में किया है और लिखा है कि वह विधि संघ की आज्ञा से समाप्त कर दी गई। समाप्त भले ही कर दी गई हो, और अब वह समाप्त ही है। परंतु इससे इतना तो पता चलता है कि प्राचीन काल में यह परंपरा थी। उक्त चर्चा पर से वह निष्कर्ष फलित होता है कि पर्युषण एक ही था, आषाढ़ पूर्णिमा का, उसी के साथ वार्षिक आलोचना भी होती थी, अलग नहीं। अतः विनय विजयजी का वार्षिक पर्व का, वर्षावास पर्युषण से भिन्नता के रूप में उल्लेख, तत्कालीन प्रचलित मान्यता से प्रभावित है, सैद्धांतिक एवं ऐतिहासिक नहीं। समवायांग सूत्र का पाठ : जिसकी बड़ी चर्चा है समवायांग सूत्र के 70 वें समवाय का पर्युषण संबंधी पाठ काफी समय से चर्चा का केन्द्र है, दो सावण या दो भादवा होने पर दूसरे सावण में एवं पहले भादवा में संवत्सरी पर्व मनाने वालों के द्वारा उक्त पाठ को जब तब आगे लाया जाता है, फलतः एक महीना बीस रात्रि अर्थात् पचास दिन का, हालांकि मूल में 50 दिन का शब्दशः उल्लेख नहीं है, काफी हल्ला रहता है। और कभी-कभी तो इसी पर आराधक और विराधक का फैसला भी सुनाया जाने लगता है। यह पाठ 70 वें समवाय में है, 50 वें समवाय में नहीं। इसका स्पष्ट भाव है कि सूत्रकार आगे के 70 दिन को पर्युषण के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं, और यह जघन्य 70 दिन के वर्षावास अर्थात् चातुर्मास की ओर ही संकेत है। इस पर से साफ है कि यह पाठ वर्षावास रूप पर्युषण का ही है, वर्षावास से भिन्न तथाकथित वार्षिक पर्व का नहीं। समवायांग सूत्र के टीकाकार सुप्रसिद्ध श्रुतधर नवांगी वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि हैं। समवायांग सूत्र के उक्त पर्युषण सूत्र पर उन्होंने अपनी टीका में वर्षावास रूप पर्युषण की ही चर्चा की है। जिनवाणी और सम्यग्दर्शन के द्वारा ___.122 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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