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विचार में पड़ जाता है। क्या प्रश्नकर्ताओं ने कुछ सोच समझ कर प्रश्न किया है, या ऐसे ही 'चलो यह भी एक ढेला सही' और बस अंधेरे में ढेला फेंक दिया है।
पाक्षिक पर्व भी को पर्व है, जो पाक्षिक आलोचना के रूप में साधु के लिए अति निकट का आवश्यक पर्व है। पाक्षिक क्षमापना भी है, उसका तप भी है, प्रायश्चित्त भी है। किन्तु जब वह तीन चातुर्मासिक पर्वों के साथ एक दिन ही आता है, तब क्या होता है? पाक्षिक और चातुर्मासिक पर्व एक साथ दो कैसे मानते हैं, कैसे दोनों का एक साथ प्रायश्चित्त लेते हैं, क्षमापना करते हैं? जो समाधान आपने इन दोनों पर्वों का, उनके प्रायश्चित्त आदि का कर रखा है, वही संवत्सरी और चातुर्मासिक पर्व के संबंध में कर लीजिए, क्या परेशानी है आपको ? क्या वह शास्त्रार्थों का युग फिर से आ सकता है ?
आज ज्वरग्रस्त हूँ और ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ। मैं अपने विचार लिख देता हूँ, बाद में यदि कोई खास प्रश्न या शंका हो तो चर्चा करता हूँ। अन्यथा आधारहीन बेतुकी चर्चा - प्रतिचर्चाओं में मुझे रस नहीं है। मुझे इस गिरते स्वास्थ्य में और भी कुछ महत्त्वपूर्ण काम करने होते हैं। अतः मैं उत्तर देना चाहता नहीं था। किन्तु विचारकों का आग्रह रहा कि ऐसे तो व्यर्थ की भ्रांति फैलेगी, असत्यपक्ष को महत्त्व मिलेगा। उत्तर देना ही चाहिए ।
बात उनकी भी ठीक है। हमारा समाज स्वाध्यायशील कम है। प्राकृत संस्कृत के प्राचीन मान्य ग्रंथों से संपर्क प्राय: है ही नहीं । आगमों के भी गलत अनुवाद पढ़े जाते हैं, जिनमें मूल कुछ कहता है तो अनुवाद कुछ कहता है । हँसी आती है - ऐसे भ्रष्ट अनुवादों को पढ़ते समय तटस्थ विद्वानों को । जनता क्या करे, वह सुनी सुनाई बातों को ही 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' मान कर चलती है। फिर सांप्रदायिक गुरुजनों की बात का बहुमान तो भक्तों के लिए इतना विचारातीत है कि कुछ पूछिए ही नहीं । अतः भ्रांतिनिराकरण हेतु प्रतिवाद रूप में कभी कुछ लिखना ही होता है। परंतु मैं इसे बहुत उपयोगी पथ नहीं मानता। क्योंकि पत्रों में यह चर्चा परोक्ष रूप में चलती है, अतः उसे फिर तोड़-मरोड़ कर, औंधासीध
जो मन आया, भक्तों को समझा दिया जाता है और अपने उखड़ते पक्ष को जैसे-तैसे फिर जमा दिया जाता है। प्राचीन युग में आमने-सामने, जनता की उपस्थिति में चर्चा होती थी, जिसे शास्त्रार्थ भी कहते थे। इन चर्चाओं को सुनने के लिए संबंधित पक्षों की जनता ही नहीं, किन्तु अन्य जनता भी उपस्थित होती
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पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 133
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