Book Title: Paryushan Ek Aetihasik Samiksha Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 1
________________ 8 | पर्युषणः एक ऐतिहासिक समीक्षा परम्पराएँ सामाजिक हों या धार्मिक, एकदिन जन्म लेती हैं, विकास पाती हैं और एकदिन देशकालानुसार मोड़ लेती हैं, एवं परिवर्तित भी होती हैं। किसी भी परम्परा के लिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह अपने मूल रूप में ज्यों की त्यों हैं। उसमें न कभी कोई परिवर्तन हुआ और न कभी होगा। धर्म परम्पराएँ न अनादि हैं, न अपरिवर्तित सामाजिक परम्पराओं के अपरिवर्तित रूप का भी कम आग्रह नहीं है, फिर भी विचार जागृति के इस युग में यह आग्रह कम हो रहा है, वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए जनमानस किसी न किसी अंश में तैयार हो रहा हैं। परन्तु धार्मिक परम्पराओं के संबंध में स्थिति बडी विचित्र है। यहाँ धार्मिक मान्यताओं से प्रतिबद्ध मानस, कुछ भी परिवर्तन मानने के लिए, तैयार नहीं है। यदि कभी कोई प्रबद्ध विचारक इतिहास के विश्लेषण के आधार पर सप्रमाण परिवर्तन की चर्चा करता भी है, तो समाज में सहसा एक क्षोभ फूट पड़ता है, या क्षोभ जगाया जाता है कि 'यह तो धर्म का नाश हो रहा है।' ये तथाकथित धर्मभीरु लोग परम्पराओं को अनादि अनन्त मान कर चलते हैं। और धर्म श्रद्धा के नाम पर इस अनादि-अनन्त की मिथ्या मान्यता को बड़े धड़ल्ले के साथ धकेले जा रहे हैं। इतिहास कुछ भी कहे, सत्य कुछ भी प्रकाश में आए, पुराने धर्मग्रन्थ भी ऐतिहासिक सत्य का कितना ही क्यों न समर्थन करें, परन्तु इन लोगों का अनादि-अनन्त सम्बन्धी यह अंधराग कभी बन्द नहीं होता। अपितु और अधिक ऊँचे स्वर से ताल-बेताल गाया जाने लगता है। भले ही सत्य की हत्या हो, इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जाए, प्राचीन धर्मग्रन्थों के सर्वथा विपरीत, साथ ही उपहासास्पद अर्थ किए जाएँ, कुछ भी हो, अपना अहं सुरक्षित रहना चाहिए, जनता में हम जो कुछ कहते हैं, उसकी श्रद्धा बनी रहनी चाहिए। न हम आँख खोलें, न जनता खोले। बस, चलने दो, जो चलता आ रहा है, और कहते हैं कि जो चलता आ रहा है, वह अनादि से चलता आ रहा है। 106 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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