Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 8
________________ 'भूधर' समुझि अब, स्वहित करोगे कब ? यह गति है है जब, तब पछतैहै प्रानी ||४|| पदके अन्तिम चरण को कवि ने कई बार पढ़ा और अनुभव किया कि वृद्धावस्था में हम सब की ऐसी ही हालत होती है । अतः आत्मोत्थान की ओर प्रवृत्त होना चाहिए । इस प्रकार कवि भूधरदास का व्यक्तित्व सांसारिकता से परे आत्मोन्मुखी हुआ । # इनकी रचनाओंसे इनका समय वि. सं. की १८वीं शती (१७८१) सिद्ध होता है । रचनाएँ महाकवि भूधरदासने पार्श्वपुराण, जिनशतक और पद - साहित्य की रचना कर हिन्दी-साहित्य को समृद्ध बनाया है । इनकी कविता उच्च कोटि की है । १. पार्श्वपुराण - यह एक महाकाव्य है । इसकी कथा बड़ी ही रोचक और आत्मपोषक है । किस प्रकार वैरकी परम्परा प्राणियों के अनके जन्म जन्मान्तरों तक चलती रहती है, यह इसमें बड़ी ही खूबी के साथ बतलाया गया है । पार्श्वनाथ तीर्थंकर होनेके नौ भव पूर्व पोदनपुर नगर के राजा अरविन्दके मन्त्री विश्वभूति के पुत्र थे । उस समय इनका नाम मरुभूति और इनके भाईका नाम कमठ था । विश्वभूति के दीक्षा लेनेके अनन्तर दोनों भाई राजा के मन्त्री हु और जब राजा अरविन्द ने वज्रकीर्त्ति पर चढ़ाई की, तो कुमार मरुभूति इनके साथ युद्धक्षेत्र गया । कमठ ने राजधानी में अनेक उपद्रव मचाये और अपने छोटे भाई की पत्नी के साथ दुराचार किया । जब राजा शत्रु को परास्त कर राजधानीमें आया, तो कमठके कुकृत्य की बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ । कमठ का काला मुँह कर गदहे पर चढ़ा सारे नगर में घुमाया और नगरकी सीमासे बाहर कर दिया । आत्मप्रताड़ना से पीड़ित कमठ भूताचल पर्वतपर जाकर तपस्वियों के साथ रहने लगा । मरुभूति कमठ के इस समाचारको प्राप्त कर भूताचल पर गया और वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद कविने आठ जन्मों की कथा अंकित की है । नवें जन्म में काशी के विश्वसेन राजा के यहाँ पार्श्वनाथ का जन्म होता है । पार्श्व आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्मसाधना करते हैं। वे तीर्थंकर बन जाते हैं । कमठका # हरीसिंह शाहके सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कहे सौं जोरि कीनी एक ठानैं हैं । फिरिफिरि प्रेरे मेरे आलसको अन्त भयो, उनकी सहाय यह मेरी मन मान हैं । Jain Education International सतरहसै इक्यासिया, पोह पाख तमलीन । तिथि तेरस रविवारको, सतक समापत कीन ॥ For Private & Personal Use Only - जिनशतकप्रशस्ति www.jainelibrary.org

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