Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03 Author(s): Sudarshanacharya Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar View full book textPage 4
________________ ।। ओ३म्।। पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनुभूमिका पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् का यह तृतीय भाग पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें अष्टाध्यायी के चतुर्थ अध्याय की व्याख्या है। चतुर्थ और पंचम अध्याय में गोत्र, जनपद, पर्वत, वन, नदी, मान (मांप-तोल) और मुद्राओं का विशेष वर्णन मिलता है। अत: पाठकों के हितार्थ उनका यहां संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जाता है। (१) गोत्र परिभाषा :- गोत्र अष्टाध्यायी का एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। पाणिनि मुनि के अनुसार गोत्र की यह परिभाषा है- 'अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्' (४।१।१६२) अर्थात्पौत्रप्रभृति यदपत्यं तद्गोत्रसंज्ञकं भवति । अभिप्राय यह है कि एक पुरखा के पोते-पड़ौते आदि जितनी सन्तानें होंगी वे 'गोत्र' कही जायेंगी। गोत्र-प्रवर्तक मूल-पुरुष को वृद्ध, स्थविर और वंश्य भी कहा गया है। जैसे यदि मूल-पुरुष का नाम गर्ग है तो उसका पुत्र-गार्गि, पौत्र-गार्य और प्रपौत्र-गाायण कहलाता था। (१) मूलपुरुष (गोत्रकार)-गर्ग। (२) गर्ग का अनन्तरापत्य (पुत्र)-गार्गि । गर्ग+इञ् (अत इञ् ४।१।९५)। (३) गर्ग का गोत्रापत्य (पौत्र)-गाायण । गर्ग+यञ् (गर्गादिभ्यो यञ् ४।१।१०५)। (४) गर्ग का युवापत्य (प्रपौत्र)-गाायण । गाये+फक् (यञिोश्च ४।१।१०१) । यह गोत्रों की परम्परा प्राचीन ऋषियों से चली आ रही है। ऐसा माना जाता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में मूलपुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुये- (१) भृगु (२) अगिरा (३) मरीचि (४) अत्रि। ये चारों गोत्रकार थे। तत्पश्चात् भृगु के कुल में जमदग्नि, अंगिरा के कुल में गौतम और भरद्वाज, मरीचि के कुल में कश्यप, वसिष्ठ और अगस्त्य तथा अत्रि के कुल में विश्वामित्र उत्पन्न हुये। इस प्रकार-जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ठ, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि गोत्रकार (वंश-प्रवर्तक) हुये हैं। इन आठ ऋषियों को मूल गोत्रकार माना जाता है। इन ऋषियों के प्रत्येक कुल में भी ऐसे महान् पुरुष हुये जिनके विशेष यश के कारण उनके नाम से वंश का नाम प्रसिद्ध हो गया। उन ऋषियों के नाम से जो प्राचीन गोत्र चले आते थे पाणिनि मुनि ने शब्द रूप एवं प्रत्यय-विधान की दृष्टि से उनका वर्गीकरण करके उन्हें लगभग २० गणों में सूचीबद्ध कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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