Book Title: Panchastikay Sangraha With Authentic Explanatory Notes in English
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 7
________________ DIVINE BLESSINGS मंगल आशीर्वाद - परम पूज्य दिगम्बराचार्य 108 श्री विशुद्धसागर जी मुनिराज वस्तु के वस्तुत्व का भूतार्थ बोध प्रमाण एवं नय के माध्यम से ही होता है; प्रमाण एवं नय के अधिगम बिना वस्तु के वस्तुत्व का सत्यार्थ ज्ञान होना असंभव है, इसीलिए ज्ञानीजन सर्वप्रथम प्रमाण व नय का गम्भीर अधिगम करते हैं। नय-प्रमाण के समीचीन ज्ञान को प्राप्त होते ही साधु-पुरुष माध्यस्थ हो जाते हैं। नय-प्रमाण के भूतार्थ निर्णय को प्राप्त करके ही जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। तर्क के साथ किया गया श्रद्धान चलायमान नहीं होता - यह परम सत्य है; परन्तु तर्क तर्क ही रहना चाहिए, कुतर्क नहीं। तर्क का प्रयोग जैन दर्शन-शास्त्रों में स्वसमय की सिद्धि के लिए किया गया है। स्वसमय का ही खण्डन जो करे वह न प्रमाण का ज्ञाता है और न ही नय का, उसका प्रमाण प्रमाणाभास तथा नय नयाभास मात्र है। अध्यात्म एवं स्व-सिद्धान्तों की रक्षा के लिए तर्क-शास्त्रों की रचना हुई है, न कि स्व-सिद्धान्तों के नाश के लिए। यही कारण है कि स्वसमय का अनुरागी - स्वसमय की सिद्धि का अनुभावक - प्रतिक्षण आत्म-समय एवं आगम-समय पर ही लक्ष्य रखता है; शेष से माध्यस्थ-उपेक्षाभाव रखता है। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . VII

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