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शंकाओं का समाधान
श्रोसियों में जाकर बसा, ओसियाँ कितनी प्राचीन हैं यह तो हम आगे चल कर बतावेंगे, यहाँ तो केवल शङ्का का ही समाधान है। शङ्का करने वालों को पहिले ग्रन्थ का पूर्वाऽपर सम्बन्ध देख लेना चाहिए ताकि उभय पक्ष की समय शक्ति का अपव्यय न हो ।
शङ्कानं० २ ओसवाल जाति का शिलालेख विक्रम की तेरहवीं शताब्दी पूर्व का नहीं मिलता है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस जाति की उत्पत्ति तेरहवीं शताब्दी के आस पास ही होनी चाहिए।
समाधान-किसी जाति व स्थान की प्राचीनता केवल शिलालेखों के आधार पर ही नहीं है, परन्तु इसके और भी साधन हो सकते हैं । यदि शिलालेख का ही आग्रह किया जाय तो मान लो कि पोसवाल जाति तो इतनी प्राचीन नहीं है। पर इस जाति से पूर्व भी जैनधर्म पालने वाली अन्य जातिएँ या मनुष्य तो होंगे, और उन लोगों ने श्रात्मकल्याणार्थ जैन-मन्दिर व मूर्तिएँ भी निर्माण कराई होंगी, पर आज उनके विषय में भी विक्रम की नौवीं दशवीं शताब्दी पूर्व का कोई भी शिलालेख नहीं मिलता है, तो यह तो कदापि नहीं समझा जायगा कि शिलालेख के न मिलने पर पूर्व में कोई जैनधर्माऽनुयायी मनुष्य या जाति नहीं थी ? यह कदापि नहीं हो सकता । इस शङ्का के समाधान में तो यही कहना पर्याप्त है कि हम ऊपर लिख आए हैं कि विक्रम की बारहवीं तेरहवीं शताब्दी के आस पास ओसवान शब्द की उत्पत्ति हुई है, जो उपकेशवंश का अपभ्रंश है। जब इस शब्द की उत्पत्ति ही बारहवीं शताब्दी के आस पास हुई तो इसके पूर्व कालिन शिलालेखों में इस शब्द की खोज करना आकाश में पैरों का ढूँढना है । यदि इस शब्द की प्राचीनता को छोड़ इस शब्द के पर्याय-शब्द-वाची जाति की प्राचीनता का अन्वेषण करना है तो उपकेश वंश की शोध करनी उचित है क्योंकि जो उपकेश वंश की प्राचीनता है वही श्रोस. बाल वंश की प्राचीनता है । इस विषय, में हम आगे चलकर सप्रमाण वर्णन करेंगे। - शंका ३--भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में रत्नप्रभसूरि नाम के प्राचार्य हुए हैं, यदि ओसवाल वंश के स्थापक अन्तिम रत्न.