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श्रोसवालों की उत्पत्ति wwwmami
wwwindow भूयो ऽपि व्योमयानेन, तत्र चागत्य सूरयः॥ श्रेष्ठिनंबोधयामासु, र्जिन स्नानार्चन क्रियाम्॥१८८॥ सक्रमा दुहड़ःश्रेष्ठी, जिन धर्मधरो ऽभवत् ॥ शुद्ध सम्यक्त्वभूद्, यस्य परिवारोऽपिचाऽभवत्॥१८६। श्री रत्नप्रभसूरीणां मागत्याऽऽगत्य तस्थुषाम् ॥ मासकल्पा अनेके च, व्यतीयुः कल्पसेविनाम्॥१६०॥ एवं तत्र पुरे पूज्याः, संस्थिता वणिजा मथ ॥ अष्टादश सहस्राणि, जवानां प्रत्यबोधयत् ॥१६॥
"नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रस्ताव दूसरा" ___ भावार्थः-तदनन्तर श्रीरत्नप्रभसूरिजी ने श्री सम्पन्न उपकेशपुर (ोशियाँ) में भगवान् वीरजिनेश्वर की यथा विधि प्रतिष्ठा करके, विद्या बल द्वारा, आकाश मार्ग से कोरण्टकपुर में जाकर वहाँ भी उसी धनुर्लन में श्री वीर जिन की शुभ प्रतिष्ठा की । इस प्रकार श्री महावीर के निर्वाण समय के अनन्तर सित्तर ७० वर्ष बीत जाने पर उस उपकेशपुर में महावीर की बिम्ब स्वरूप सुस्थिर स्थापना हुई, और फिर वहाँ से व्योमयान द्वारा आकर श्री सूरिजी ने सेठ को भगवान् जिनकी स्नात्र, अर्चन क्रिया समझाई । वह सेठ अनुक्रम से शुद्ध सम्यक्त्व को धारण कर सपरिवार जिन धर्म का अनुयायी हुआ । श्री रत्नप्रभसूरिजी वारंवार वहाँ आकर और कुछ काल रहकर कई मास कल्प बिताते थे। वहाँ रहकर सूरिजी ने और भी अदारह हजार सङ्घ ( जङ्घ)क्षत्रिय और वैश्यों को जैन धर्म की दीक्षा दी।
इस प्रमाण से भी यही सिद्ध होता है कि वीर से ७० वर्ष बीतने पर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई, और ऊहड़ सेठ आदि हजारों क्षत्रियों एवंवैश्यों को जैन बनाया।
(५) प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने के बाद भी उपकेशपुर में पधार कर और लोगों को भी जैन बनाया इस विषय में कहा है कि- .