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प्राचीन प्रमाण घन गरजे वरसे नहीं, जगो जुग वरसे अकाले । यति सती साथे घणा, राजा राणा बड़ भूप ॥ वोले भाट विरुदावली, चारण कविता चूप । मिलीया सेवग सांमटा, पूरे संक्ख अनूप ॥ जग जस लीनो दान दे, यो जग्गो संघपति भूप। दान दियी लख गाय, लख वलि तुरंग तेजाला ॥ सोनो सौ मण सात, सहस मोतियन की माला। रूपा नो नहीं पार, सहस करहा कर माला ॥ बीये बावीस भल जागियो, यो ओसवाल भूपाला ।
यह कवित्त यद्यपि इतना प्राचीन तो नहीं है कि जिसे हम ऐतिहासिक क्षेत्र में स्थान दे सके, तथापि यह बिलकुल निराधार भी नहीं है। कारण जगशाह का समय वि० सं० २२२ का बतलाया है तब महाजन वंश की स्थापना वि० सं० पूर्व ४०० वर्षों में हुई, इसके बीच ६२२ वर्ष का समय पड़ता है। इतने समय में उपकेशवंशी लोग
आभा नगरी तक पहुँच गये हो और सच्चिया देवी के परचा को पा कर यात्रार्थ उपकेशपुर आए हों और इस तरह दान दिया हो यह कोई असंगत नहीं जान पड़ता। क्योंकि "उपकेशे बहुलं द्रव्यं' इस बरदान से उपकेशवंश महा समृद्ध था, और हमारे उपकेशवंशीय एक एक व्यक्ति ने संघ निकाल के प्रत्येक व्यक्ति को एक एक सोने के थाल को प्रभावना दी ऐसे अनेकों उल्लेख मिलते हैं। अतः इसको लक्ष्य में रखते हुये जगशाह का इतना दान देना भी युक्ति युक्त ही है। आज भी यदि एकएक राष्ट्र के पास ७००० टन सोना है तो पूर्व जमाना में, जहां रत्नों का भी बाहुल्य था वहां सोना किस गिनती में है। इस प्रमाण से वि० सं० २२२ पूर्व भी उपकेश वंश का अस्तित्व सिद्ध होता है।
. १०-विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशगच्छाचार्य श्री यक्षदेवसूरि सोपरपटन में विराजते थे। उस समय वज्र स्वामी के पट्टधर बनसेनाचार्य ने अपने चार शिष्यों को दीक्षा दे सपरिवार सोपार पटण