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शंकाओं का समाधान आचार्य वनसेन सूरि के चार शिष्यों से चार कुल उत्पन्न हुएचन्द्रकुल, नागेन्द्रकुल, विद्याधरकुल और निवृत्तिकुल, क्षमाश्रमणजी ने अपने कुल की गुरुपावली (गुरु वंशवृक्ष) लिखी है। जब महावीर परम्परा और विशेष निवृत्तिकुलादि का ही इतिहास कल्पस्थविरावली में नहीं मिलता है तो पार्श्वनाथ परम्परा और उपकेश गच्छ के लिए तो स्थान ही कहां से हो ! और इससे यह कहना भी योग्य नहीं कि जिसका कल्पसूत्र स्थविरावली में उल्लेख नहीं हो वह ऐतहासिक घटना ही न हो। क्या वीर से १००० वर्षे में घटित हुई सारी घट. नाएँ कल्पसूत्र की स्थविरावली में आ गई हैं ? और केवल आसवालोंत्पत्ति घटना ही शेष रही है ? यदि नहीं तो यह शङ्का ही क्यों ? खैर ! यह शङ्का तो ओसवाल बनाने की है परन्तु कल्पस्थविरावली में तो पार्श्वनाथ परम्परा का नाम भी नहीं है और यह निःशङ्क है कि महावीर के समय के पहिले से ही पार्श्वनाथ की परम्परा विद्यमान थी-अतः यह शङ्का भी इतना वजन नहीं रखती जिससे हम ओसवालोत्पत्ति में संदेह करें। . शङ्का नं०६-ओसवालों में सबसे पहले अट्ठारह गोत्र हुए, कहे जाते हैं और वे अट्ठारह जाति के राजपूतों से हुए बताये जाते हैं। और उन अट्ठारह जाति के राजपूतों के विषय में एक कवित भी कहा जाता है वह यह है:
"प्रथम साख पँवार १, शेष शिशोदा २ श्रृंगाला।
रणथंभा राठौर ३, वसंच ४ बालचचाला ५॥ दइया६ भाटी७ सोनीगराध, कच्छावाह धनगौड़१० कहीजे । जादव ११ झाला १२ जिंद १३, लाज मरजाद लहीजे ॥ खरदर पाट ओपे खरा, लेणा पाटज . लाखरा । एक दिन एते महाजन भये, शूरा वड़ा बड़ी साखरा ॥१॥ __ इस कवित्त में कई जातियों के नाम रह भी गए हैं फिर भी ये जातिएँ इतनी प्राचीन नहीं है कि जितना समय श्रोसवालों की उत्पत्ति का पट्टावलियों वगैरह में मिलता है। . .....
समाधान-प्रथम तो यह कवित्त ही स्वयं अर्वाचीन है और किसी . प्राचीन ग्रन्थ, पट्टावलियों एवं वंशावलियों में दृष्टिगोचर भी नहीं होता है।