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प्रधान-सम्पादकीय वक्तव्य
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम भाग का प्रकाशन सन् १९५७ में इसी प्रतिष्ठान की पुरातन ग्रन्थमाला के अंतर्गत हुआ था। उस समय से निरंतर इसके द्वितीय भाग की मांग होती रही है। हमें खेद है कि हमारे पाठकों को द्वितीय भाग के लिए ११ वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। वस्तुतः ग्रन्थ के द्वितीय भाग का मुद्रण भी सन् १९५७ में हो चुका था, परंतु किन्हीं कारणों से इसका प्रकाशन अब तक रुका रहा । प्रन्थ के प्रकाशन में इस अत्यधिक विलम्ब के लिए क्षमायाचना करते हुए, प्रतिष्ठान इस ग्रन्थ को सहृदय पाठकों के हाथों में देते हुए संतोष का अनुभव करता है ।
नत्य रत्नकोश मेवाड़ाधिपति महाराणा कुम्भा की सुप्रसिद्ध कृति संगीतराज का एक भाग है । संगीतराज में नुत्यरत्नकोश (जो कि ग्रन्थ का चतुर्थ कोश है) के अतिरिक्त पाठयरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश और रसरत्नकोश भी हैं। सर्वप्रथम डा०- श्री सी. कुन्हन राजा ने इस ग्रन्थ के पाठयरत्नकोश को प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् डा. प्रेमलता शर्मा ने पाठयरत्नकोश के साथ गीतरत्नकोश को मिलाकर एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ प्रकाशित करवाया। इनमें से पाठयरत्वकोश को पुन: इस प्रतिष्ठान द्वारों प्रकाशित करने का निश्चय सन् १९६४ में किया गया था और श्रीगोपालनारायण बहुरा द्वारा संपादित होकर वह ग्रन्थ सन १९६५ में मुद्रित भी हो गया था, परन्तु अभी तक उसकी भूमिका प्राप्त न होने से वह प्रकाशित नहीं हो सका। हर्ष हैं कि वह भी संपादक को विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ अब प्रकाशित हो रहा है। ... महाराणा कुम्भा की इन अमरकृति के दो भाग वाद्यरत्नकोश तथा रसरत्नकोश प्रकाशित होने के लिए फिर भी रह जाते हैं। योग्य सम्पादक मिलने पर उन दोनों का प्रकाशन भी प्रतिष्ठान द्वारा हाथ में लिया जायगा, जिससे कि इस बहुमूल्य ग्रन्थ की समग्रता सुविज्ञ पाठकों के सामने प्राजाय और उसका अध्ययन तथा अनुशीलन योग्य व्यक्तियों द्वारा किया जा सके। - कुछ विद्वानों ने संगीतराज को संगीतरलाकर पर प्राधारित, माना है । संगीतरत्नाकर में सात अध्याय हैं जिनमें क्रमशः स्वर,, राम प्रकीर्ण, प्रबन्ध, ताल, वाद्य और नृत्य विषयों की चर्चा है. परन्तु संगीतराज और संगीतरत्नाकर के सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन के विना, यह कहना असंभव है कि संगीतराज के ५
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