Book Title: Niyamsara Prabhrut Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan View full book textPage 3
________________ -४ निश्चयनयेन तु अयोगिनां चरमसमयतिरत्नत्रयपरिणामो मोक्षमार्गः, साक्षात् मोक्षप्राप्तिहेतुत्यात् । भानमोक्षापेक्षया अध्यात्मभाषया था क्षीणकषायान्त्यपरिणामोऽपि चेति । तात्पर्यमेतत्-चिच्चैतन्यचमत्कारस्वरूपतिजपरमात्मतत्वस्य रुचिस्तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थानं चतदभेदरत्नत्रयस्वरूपनिश्चयमोक्षमार्गमुपादेयं कृत्वा भेवरत्नत्रयरूपध्यवहारमोक्षमार्ग आश्रयणीयः । तच्छपत्यभाबे देशचारित्रमवलम्बनीयं महाव्रतस्य च भावना कर्तव्या । स्तोकव्रतग्रहणाभावे सम्यक्त्वं दृढोकुर्वता सता विकलचारित्रस्य भावना विधातव्या । किं च, क्रममनतिक्रम्यैव भावना भवनाशिनी भवति । अथवा छठे सातवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही है क्योंकि वह परम्परा से कारण है। निश्चयनय से तो अयोग केवलियों का अंतिम समयवर्ती रत्नज्य परिणाम हो मोक्षमार्ग है, क्योंकि वह साक्षात् अनंतर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। अथवा भाव मोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीणकषायवर्ती मुनि का अन्तिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है। तात्पर्य यह निकला कि चितुचैतन्य चमत्कार स्वरूप अपनी आत्मा ही परमात्मतत्त्व है, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसो मे स्थिरतारूप चारित्र, यह अभेद रत्नत्रय का स्वरूप है । यही निश्चय मोक्ष मार्ग है इसको उपादेय करके भेदरत्नत्रय-स्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए। यदि मुनि बनने की शक्ति नहीं है, तो अणुनती आदि बनकर देश चारित्र का अवलम्बन लेना चाहिए और महाव्रती की भावना करनी चाहिए। यदि अणुब्रत भी नहीं ले सकते हैं, तो सम्यक्त्व को दूत रखते हुए देशचारित्र की भावना करनी चाहिए, क्योंकि क्रम का उल्लंघन न करते हुए ही की गई भावना भत्र का नाश करने वाली होती है।" चौथी गाथा को टोका में मोक्षमार्ग चौथे गुणस्थान में नहीं है मात्र उस मार्ग का एक अवयव सम्यग्दर्शन है। इसको प्रवचनसार के आधार से स्पष्ट किया है । जैनागम के सिवाय अन्य शास्त्र पूर्वापर विरोध दोष से सहित हैं इसे न्यायकुमुदचंद्र के आधार से सिद्ध किया है । गाथा ग्यारहवीं की टीका में सर्वज्ञ के ज्ञान में भूत-भविष्यत् पदार्थ वर्तमान के समान झलकते हैं यह स्पष्ट झलकाया है। गाथा सोलहवीं की टोका में तिलोयपण्णत्ति के आधार से कर्मभूमिज भोगभूमिज मनुष्यों का विवेचन किया है । गाथा अठारहवीं में जीव के कर्तृत्व भोक्तृत्व में कर्मों के बंध उदय को दिङ्मात्र व्यवस्था बताई है । गाथा उन्नीसवीं में निश्चय व्यवहारनयों के भेद प्रभेद दिखलाये गये हैं। इस तरह इस अधिकार में उन्नीस गाथाएं हैं। इस अधिकार के अन्त में महावीर भगवान् के शासन को अविच्छिन्न रखने वाले 'श्री गौतम स्वामी से लेकर अन्तिम वोरांगज' मुनि तक सर्व दिगम्बर महामुनियों को नमस्कार किया है। २. अजीवाधिकार इस अधिकार में सम्यक्स्थ के विषयभुत अजीव तत्त्व का विवेचन करते हुए ग्रन्थकर्ता ने पुद्गल के अणु और स्कंध दो भेद करके स्कन्ध के छह और अणु के दो भेद किये हैं । इस ग्रन्थ में विशेषता यही है कि ये अजीव के भेद भी जीव के समान स्वभाव-विभाव रूप से किए गए हैं। १. नियमसार प्रामृतम्, पु. १७-१८ ।Page Navigation
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