Book Title: Naychakra Guide Author(s): Shuddhatmaprabha Tadaiya Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ अध्यात्म के नय एकता का खण्डन करता है और एक अखण्ड वस्तु में भेदों का निषेध अखण्डता की स्थापना करता है, उसे निश्चयनय कहते हैं। कार्य - निश्चयनय का कार्य पर से भेद और निज में अभेद स्थापित करना है तथा कर्ता-कर्म के भेद का निषेध कर अभिन्न कर्ता-कर्मादि षट्कारक की स्थापना करना भी है। कथन निश्चयनय जिस द्रव्य का जो भाव या परिणति हों, उसे उसी द्रव्य की कहता है। प्रत्येक द्रव्य का स्वतंत्र यथावत् कथन करता है । निश्चयनय का कथन स्वाश्रित होता है। भूतार्थता स्वाश्रित होने से निश्चयनय के कथन सत्यार्थ हैं, भूतार्थ हैं अथवा समग्र स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाएगा, क्योंकि वस्तु में वो परस्पर विरोधी धर्म युगल निश्चयनय का विषय अभेद - अखण्ड आत्मा है। उसके विषयभूत आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, मुक्ति की प्राप्ति होती है, अतः यह नय भूतार्थ है। निश्चयनय और व्यवहारनय में अन्तर निश्चवनय और व्यवहारनय में निम्नानुसार अंतर हैं निश्चयनय १० - १) निश्चयनय यथार्थ निरूपण करता है। २) निश्चयनय आत्माश्रित कथन करता है। ३) निश्चयनय असंयोगी कथन करता है। ४) निश्चयनय भूतार्थ है। ५) निश्चयनय जिस द्रव्य का जो भाव या परिणति हो, उसे उसी द्रव्य की कहता है। ६) निश्चयनय प्रत्येक द्रव्य का स्वतंत्र कथन करता है। ७) निश्चयनय एक अखण्ड वस्तु में भेदों का निषेध कर अखण्डता की स्थापना करता है। व्यवहारनय १) व्यवहारनय उपचरित निरूपण करता है। २) व्यवहारनय पराश्रित कथन करता है। ३) व्यवहारनय संयोगी कथन करता है। ४) व्यवहारनय अभूतार्थ है। (५) व्यवहारनय निमित्तादि की अपेक्षा अन्य द्रव्य के भाव या परिणति को अन्य द्रव्य की कह देता है। ६) व्यवहारनय अनेक द्रव्यों को, उनके भावों को और कारण कार्यादिक को मिलाकर कथन करता है। ७) व्यवहारनय एक अखण्ड वस्तु में भेद करता है। निश्चयनय ८) निश्चयनय दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में स्थापित एकता का खंडन करता है। ९) निश्चयनय का कार्य स्व से अभेद और पर से भेद करना है। १०) निश्चयनय प्रतिपाद्य है। ११) निश्चयनय निषेधक है। १२) निश्चयनय और व्यवहारनय में प्रतिपाद्यप्रतिपादक संबंध है। १३) निश्चयनय को पाने के लिए व्यवहारनय को छोड़ना होगा। (१४) निश्चयनय को समझने के लिए प्राथमिक भूमिका में व्यवहारनय को अपनाना होगा। १५) निश्चयनय के बिना तत्त्व ( शुद्धात्मा के अनुभव) का लोप हो जाएगा। १६) अनुभव की प्रक्रिया में निश्चयनय प्रधान है। १७) अनुभव के काल में निश्चयनय का विकल्प छूटता है, पर विषय का आश्रय रहता है। (१८) निश्चयनय अभिन्न कर्त्ता कर्म की स्थापना करता है। ११ ८) व्यवहारनय प्रयोजनवश दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद स्थापित करता है। ९) व्यवहारनय का कार्य स्व में भेद और पर से अभेद करना है। १०) व्यवहारनय प्रतिपादक है। ११) व्यवहारनय निषेध्य है। १२) व्यवहारनय और निश्चयनय में निषेध्यनिषेधक संबंध है। १३) व्यवहारनय के बिना निश्चय समझा नहीं जा सकता। १४) व्यवहारनय को छोड़े बिना निश्चयनय पाया नहीं जा सकता। (१५) व्यवहारनय के बिना तीर्थ (उपदेश) का लोप हो जाएगा। १६) उपदेश की प्रक्रिया में व्यवहारनय प्रधान है। १७) अनुभव के काल में व्यवहारनय का विकल्प एवं विषय का आश्रय भी छूट जाता है। १८) व्यवहारनय भिन्न-भिन्न द्रव्यों के बीच कर्त्ता कर्म संबंध बताता है। निश्चय - व्यवहार का विरोधी रूप उक्त प्रकार से हम देखते हैं कि निश्चय - व्यवहार की विषयवस्तु और कथन-शैली में मात्र भेद ही नहीं, अपितु विरोध दिखाई देता है; क्योंकि जिस विषयवस्तु को निश्चयनय अभेद - अखण्ड कहता है, व्यवहार उसी में भेद बताने लगता है और जिन दो वस्तुओं को व्यवहार एक बताता है, निश्चयनव के अनुसार वे कदापि एक नहीं हो सकती हैं। जैसे - व्यवहारनय कहता है कि जीव और देह एक ही है और निश्चयनय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते। १. समयसार, गाथा-२७ -Page Navigation
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