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सद्भूतव्यवहारनय
अध्यात्म के नय ___कर्ता-भोक्ता - इस नय से ही जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलस्वरूप सुख-दुःख का भोक्ता है। मनुष्यादि पर्यायों का कर्त्ता-भोक्ता भी इसी नय से कहा जाता है।
नाम की सार्थकता - शरीरादि संश्लिष्ट संबंध वाले परपदार्थों में एकता आरोपित करने के कारण 'असद्भूत' है, मात्र उपचार करने के कारण 'अनुपचरित' हैं, भिन्न द्रव्य में एकत्व-ममत्व का संबंध जोड़ने के कारण 'व्यवहार' है और अंश का कथन करने के कारण 'नय' है। अतः इसका उपचरित असद्भूतव्यवहारनय सार्थक है।
प्रयोजन - अहिंसात्मक आचरण और भेदविज्ञान की सिद्धि करना इस नय का प्रयोजन है।
हेयोपादेयता - यह नय अहिंसात्मक आचरण का प्रतिपादन करने वाला है, अतः कथंचित् उपादेय है तथा शरीर में की गई अहंबुद्धि, ममत्व बुद्धि, कर्त्ताबुद्धि और भोक्ताबुद्धि ही दुःखों का कारण है, अतः यह नय कथंचित् हेय है।
(२) सदभूतव्यवहारनय स्वरूप और विषयवस्तु - जो गुणों, कर्मों, स्वभाव और पर्यायों के आधार पर भेद करके अखण्ड वस्तु स्वरूप को स्पष्ट करता है, उसे सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। यह नय अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के भीतर की बात करता है। गुण गुणी में, पर्याय-पर्यायी में, स्वभावस्वभाववान में और कारक-कारकवान में - जो वस्तुतः अभिन्न है, उनमें भेद करना सद्भूतव्यवहानय का विषय है। इसप्रकार यह नय एक अखण्ड वस्तु में भेद डालकर एक को अनेकरूप देखने वाला है, अभिन्न वस्तु में भेदव्यवहार करने वाला है, अपने में ही भेद करने वाला १. नियमसार गाथा १८ की तात्पर्यवृत्ति टीका। २. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१११ ३. वही, पृष्ठ-११२
है। जैसे - जीव को ज्ञान दर्शन वाला कहना । वस्तुतः तो ज्ञान, दर्शन-जीव से अभिन्न ही हैं, पर यह नय उनमें भेद करता है। अत: यह नय भेद का उत्पादक है।
वस्तुतः तो वस्तु में भेद हैं ही नहीं, उनमें भेद किए नहीं जा सकते; पर भेद करके जान सकते हैं, समझ सकते हैं; अतः यह नय अपने में भेद करके समझाता है।
एक द्रव्य की मर्यादा के भीतर किए गए गुणभेदादि भेद दो द्रव्यों के बीच होने वाले भेद के समान अभावरूप न होकर अतद्भावरूप होते हैं। अतद्भाव अभावरूप नहीं होता है। स्वरूप अपेक्षा से जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है - यह अतद्भाव है। अथवा अतद्भाव अन्यत्व है। एक द्रव्य की मर्यादा के भीतर गुण का गुणी में अभाव या गुणी का गुण में अभाव अथवा एक गुण का दूसरे गुण में अभाव, इत्यादि रूप जो अभाव होता है, उसे अन्यत्व कहते हैं अथवा अन्य-अन्य होना अन्यत्व है। एवं द्रव्य के दो गुण या गुण-गुणी आदि अन्य-अन्य होते हैं; क्योंकि एक द्रव्यरूप होने से वे अपृथक् ही हैं, पृथक्-पृथक् नहीं। जैसे वस्त्र और शुभ्रता में अन्यत्व है, क्योंकि उनके प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं। ___ संक्षेप में कह सकते हैं कि सद्भूतव्यवहारनय अतद्भाव के आधार पर द्रव्य की एकता को खण्डित करता हुआ अपने में ही अन्यत्व को विषय बनाता है। ___ नाम की सार्थकता - वस्तु के गुण पर्याय उस वस्तु में ही विद्यमान होने के कारण ‘सद्भूत' कहलाते हैं, अखण्ड वस्तु में गुण-पर्याय आदि के आधार पर भेद उत्पन्न करने के कारण उसे व्यवहार' कहते हैं और भेदाभेद वस्तु के भेदांश को ग्रहण करने वाला होने से नय' कहते हैं? अतः इसका सद्भूतव्यवहारनय नाम सार्थक है।
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. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१२८, १२९, १३०