Book Title: Naychakra Guide
Author(s): Shuddhatmaprabha Tadaiya
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ ४२ अध्यात्म के नय गुणस्थान - क्षायिक भावों को ग्रहण करनेवाला यह नय चौथे गुणस्थान से सिद्धों तक घटित हो सकता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन की अपेक्षा यह चौथे गुणस्थान में भी पाया जाता है।' प्रयोजन - यह नय नहीं मानने पर क्षायिक भाव के अभाव होने से मोक्ष और मोक्षमार्ग का अभाव सिद्ध होगा, क्योंकि फिर तो एकमात्र परमभावग्राही शुद्धनय रहेगा और उसकी दृष्टि से तो बंध-मोक्ष है ही नहीं। इस नय के विषयभूत क्षायिकभाव रूप प्रकट पर्यायों के आधार पर ही त्रिकाली शुद्धात्मा के स्वरूप का निश्चय होता है; अतः पूर्ण शुद्ध स्थायी पर्याय में एकता स्थापित करना इस नय का प्रयोजन है। हेयोपादेयता - साक्षात् शुद्धनिश्चयनय का विषयरूप क्षायिक पर्याय यद्यपि पूर्ण है, पवित्र है; पर ध्याता पुरुष इसमें भी अहं स्थापित नहीं करता; क्योंकि उसके आश्रय से पवित्रता प्रगट नहीं होती। अतः आश्रय करने की दृष्टि से यह नय हेय है, किन्तु प्रगट करने की अपेक्षा यह नय उपादेय है। (iii) परमशुद्धनिश्चयनय स्वरूप और विषयवस्तु - त्रिकाली शुद्ध परम पारिणामिक सामान्यभाव को ग्रहण करने वाले नय को परमशुद्धनिश्चयनय कहते हैं। अर्थात् समस्त विकारी-अविकारी पर्यायों से रहित त्रिकाली द्रव्य स्वभाव को विषय बनाने वाले नय को परमशुद्ध निश्चयनय कहते हैं। जैसे - परम स्वभावभूत गुणों का आधार होने से कारणशुद्धजीव ।' अथवा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से युक्त जीव । परमशुद्धनिश्चयनय इस नय के अनुसार सांसारिक सुख-दुःख और राग-द्वेष हैं ही नहीं अर्थात् परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत आत्मा में नहीं है।' इसका विषय बंध-मोक्ष पर्याय से रहित शुद्धात्मा है। इसप्रकार हम देखते हैं कि यह नय त्रिकाली द्रव्य स्वभाव को अपना विषय बनाता है। इसका विषय तो परजीवों, पुद्गलादि अजीवों तथा आश्रवादि पर्यायों से पृथक्, गुणभेद से भिन्न, अभेद, अखण्ड, त्रिकाली आत्मतत्त्व ही है। इन्हें कहीं-कहीं संक्षेप में पर और पर्यायों से भिन्न भी कहा जाता है। ___ अकर्ता-अभोक्तापना - परमार्थ से जीव उत्पन्न नहीं होता है, मरता नहीं है, बंध और मोक्ष करता नहीं है, इसलिए इस नय से जीव अकर्ता-अभोक्ता है। नाम की सार्थकता - यह नय गुण-गुणी में अभेद करके अभेद द्रव्य को विषय करता है, इसलिए 'निश्चय' है और त्रिकाली शुद्ध परम पारिणामिक सामान्य भाव के साथ अभेद बताता है, इसलिए ‘परमशुद्ध' है, अंश का कथन करने के कारण 'नय' है। अतः इसका परमशुद्धनिश्चयनय नाम सार्थक है। गुणस्थान - द्रव्य के परमपारिणामिकभाव रूप सामान्य अंश को ग्रहण करने वाला होने से यह नय निगोद से सिद्धों तक, संसारी और मुक्त समस्त जीवों के पाया जाता है। अतः यह चौदह गुणस्थानों और गुणस्थानातीत सिद्धों में भी पाया जाता है। वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त के सभी भाव जीव के नहीं हैं - यह कथन इसी नय की अपेक्षा किया जाता है। 'सर्व जीव हैं सिद्ध सम' 'मम स्वरूप है सिद्ध समान' या 'सिद्ध समान सदा पर मेरो'६ - आदि कथन इसी नय के हैं; क्योंकि इसमें सिद्ध के समान १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-८१ २. वही, पृष्ठ-१०९ ३. वही, पृष्ठ-१०२ ४. वही, पृष्ठ-९३ ५. वही, पृष्ठ-९१ ६. वही, पृष्ठ-९१ १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-९१-९२ २. वही, पृष्ठ-९८ ३. वही, पृष्ठ-१०८ ४. वही, पृष्ठ-८४ ५. नियमसार गाथा ९ की संस्कृत टीका ६. पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा-२७ की टीका 24

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