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अध्यात्म के नय
अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय
'उपचरित' है और भिन्न द्रव्यों में संबंध जोड़ने के कारण 'व्यवहार' है तथा अंश का कथन करने के कारण 'नय' है; अतः इसका उपचरित असद्भूत व्यवहारनय नाम सार्थक है।
प्रयोजन - स्वधन-परधन, स्वस्त्री-परस्त्री में भेद डालने वाला यह नय आदमी को पशु नहीं बनने देता। परपदार्थों में अपने-पराये का भेद डालने वाले इस नय के बिना धार्मिक व नैतिक जीवन संभव नहीं। धार्मिक व नैतिक जीवन बिना अध्यात्म की साधना संभव नहीं। अतः लौकिक मर्यादायें बताकर सदाचार एवं भेदविज्ञान की सिद्धि कराना इस नय का प्रयोजन है।
हेयोपादेयता - सदाचार की सीमा का प्रतिपादक होने से यह नय कथंचित् उपादेय है तथा परपदार्थों में की गई एकत्वबुद्धि-ममत्वबुद्धि दुःख देने वाली होने से यह नय कथंचित् हेय है।
(ii) अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय स्वरूप और विषयवस्तु - जो नय भिन्न वस्तुओं के संश्लेष सहित संबंध को विषय बनाता है, उसे अनुपचरित, असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। जैसे - जीव का शरीर है।
संयोगी परपदार्थों में जो अत्यन्त समीप हैं अर्थात् जिनका आत्मा के साथ संश्लिष्ट संबंध है, एकक्षेत्रावगाह संबंध है - ऐसे शरीरादि का संयोग इस नय का विषय बनता है। यह नय देह को ही अपना कहने वाला है, आत्मा को देह से अभिन्न कहने वाला है। क्योंकि शरीर का आत्मा से सीधा संबंध है, निकट का संबंध है, एकक्षेत्रावगाही संबंध है, संश्लिष्ट १. आलापपद्धति, पृष्ठ-२२८ २. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि मात्र एकक्षेत्रवगाही संबंध ही संश्लिष्ट संबंध नहीं है,
अपितु सीधा संबंध संश्लिष्ट संबंध है। जैसे - ज्ञान-ज्ञेय के बीच एकक्षेत्रावगाही संबंध न होने पर यदि संश्लिष्ट संबंध है। ३. परमात्मप्रकाश, अध्याय-१, गाथा १४ की संस्कृत टीका।
संबंध है। अतः शरीर को आत्मा कहना,शरीर और आत्मा को एक कहना तथा शरीर में एकत्व-ममत्व स्थापित करना इस नय का विषय है। ___दशप्राणों में जीव सो जीव', देहवाला जीव, मूर्तिक जीव, द्रव्यकर्मों व शरीरादि नौकर्मों का कर्ता जीव - ये सभी कथन इस नय के हैं। तीर्थंकर आदिनाथ पाँच सौ धनुष की कंचनवर्णी काया वाले थे आदि देह के गुणों के आधार पर की गई स्तुति एवं वे सर्वज्ञ थे आदि कथन इसी नय के हैं। त्रस-स्थावर जीवों के मारने पर हिंसा का होना और उनके त्याग रूप अहिंसाणुव्रत, महाव्रत भी इसी नय के कथन हैं; क्योंकि इनमें मात्र उपचार किया गया है।
यह उपचार नौ प्रकार से किया जा सकता है - द्रव्य में द्रव्य का, गुण में गुण का, पर्याय में पर्याय का, द्रव्य में गुण और पर्याय का, गुण में द्रव्य और पर्याय का, पर्याय में द्रव्य और गुण का । जैसे - पौद्गलिक काय में जो एकेन्द्रिय आदि के शरीर बनते हैं, इन्हें जो जीव कहता है, वह विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्य का आरोपण करने वाला अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय है।
रात्रि में भोजन नहीं करना, माँस-मदिरा का सेवन नहीं करना, आलू आदि जमीकंद नहीं खाना; क्योंकि इनमें अनन्तजीव हैं - इनको खाने से अनन्त जीवों की मृत्यु हो जाएगी - ये भव इसी नय के कथन हैं।
त्रस स्थावरजीवों की हिंसा के त्यागरूप अणुव्रतादि ग्रहस्थधर्म एवं महाव्रतादि मुनिधर्म के प्रतिपादक चरणानुयोग का मूल-आधार यह नय ही है। १. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा २७ की तात्पर्यवृत्ति टीका। २. ज्ञान व ज्ञेय में सीधा संबंध होने के कारण तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं' - आदि कथन इस नय
के अन्तर्गत आते हैं। . इनका विस्तृत उदाहरण सहित वर्णन परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१४६-१४७ में पढ़ें।
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