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अध्यात्म के नय
सजाति, विजाति और उभय के भेद से द्रव्यों का वर्गीकरण भी तीन प्रकार से किया जाता है। उक्त तीनों द्रव्यों में विभिन्न संबंधों के आधार पर उक्त नौ प्रकार का उपचार करना ही असद्भूतव्यवहारनय का विषय है।
वस्तुतः भिन्न द्रव्यों में अभेद वस्तुगत नहीं है, किन्तु यह नय संबंधों के आधार पर 'पर' से एकत्व जोड़ता है। जैसे- शरीर को अपना मानना, माता-पिता, मकानादि को अपना कहना यह मेरे माता-पिता हैं, यह मेरा मकान है आदि । - इसप्रकार आत्मा का पर से एकत्व इस नय का विषय है।
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संक्षेप में कहें तो यह नय भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद व्यवहार कर, दो द्रव्यों के बीच संबंध बताता है। आत्मा के साथ परद्रव्यों का संबंध दो प्रकार से होता है - संश्लिष्ट संबंध और असंश्लिष्ट संबंध ।
जिन दो पदार्थों में सीधा संबंध पाया जाता है, उन्हें निकटवर्ती या संश्लिष्ट कहते हैं। संश्लिष्ट पदार्थों में मात्र उपचार करने से काम चल जाता है। जैसे - ज्ञान और ज्ञेय के बीच सीधा संबंध होने से ज्ञाता ज्ञेय संबंध को संश्लेष संबंध अर्थात् निकट का संबंध माना गया है, जबकि अत्यधिक दूरी पाई जा सकती है; क्योंकि सर्वज्ञ भगवान का ज्ञेय तो अलोकाकाश भी होता है।
जब दो पदार्थ किसी तीसरे माध्यम से (इनडायरेक्ट) संबंधित होते हैं, तब उन्हें दूरवर्ती या असंश्लिष्ट संबंध कहा जाता है। इन असंश्लिष्ट संयोगी पदार्थों में उपचार में भी उपचार करना होता है। जैसे - स्त्रीपुत्रादि और मकानादि के साथ जो आत्मा का संबंध है, वह देह के माध्यम से होता है, अतः वह उपचार में उपचार है।"
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ १४३
२. वही, पृष्ठ १११
३. यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि एकक्षेत्रवगाही संबंध संश्लिष्ट संबंध का पर्यायवाची नहीं है। यहाँ एकक्षेत्रावगाह संबंध होने पर भी संश्लेष संबंध है। ४. वही, पृष्ठ १४९ - १५० ५. वही, पृष्ठ १५०
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असद्भूतव्यवहारनय
इसप्रकार यह नय आत्मा का परपदार्थों के साथ कैसा संबंध है? यह बताता है। प्रथमानुयोग के सभी कथन इस नय के अन्तर्गत आते हैं। जैसे - तीर्थंकर आदिनाथ की पत्नी आदि का उल्लेख, उनकी पाँच सौ धनुष की काया का कथन इसी नय के विषय हैं।
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नाम की सार्थकता - दो द्रव्य कभी भी अपृथक् (एक) नहीं हो सकते। संयोगादि देखकर उनके बीच जो अपृथकता (एकता) बताई जाती है, वह आरोपित होती है, वस्तुतः नहीं । अतः भिन्न-भिन्न वस्तुओं में एकतारूप असत्य आरोप करने के कारण यह नय 'असद्भूत' कहलाता है। भिन्न द्रव्यों में संबंध जोड़ने के कारण 'व्यवहार' है और अंश का कथन करने के कारण 'नय' है इसप्रकार इसका 'असद्भूतव्यवहारनय' नाम सार्थक है।
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प्रयोजन - दो भिन्न द्रव्यों के बीच संबंध बताने वाला यह नय दुनिया की मान्यता का प्रतिनिधित्व करने वाला है। यह नय लौकिक वचन व्यवहार के लिए उपयोगी है। जैसे- स्वघर - परघर, स्वस्त्री - परस्त्री का भेद मात्र लौकिक ही नहीं है; अपितु इसका धार्मिक आधार भी है, नैतिक आधार भी है। अतः धार्मिक और नैतिक जीवन के लिए परपदार्थों में भी अपने-पराये का भेद डालना इस नय का प्रयोजन है। साथ ही साथ आत्मा का परपदार्थों के साथ किस प्रकार का संबंध हो सकता है? यह बताकर भेदविज्ञान की सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करना भी इस नय का प्रयोजन है।
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ११२ २. वही, पृष्ठ- १३८
हेयोपादेयता - इस नय का विषय जानने के लिए एवं लौकिक वचन व्यवहार के लिए उपयोगी होने से उपादेय है, पर उपचार के सहारे आत्मा की विभक्तता को भंजित करने के कारण हेय है। अर्थात् आत्मा की पर से एकता स्थापित करने के कारण हैय हैं, क्योंकि पर से एकता दुःख का कारण है।
३. वही, पृष्ठ १३०