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अध्यात्म के नय
इसीलिए व्यवहार को कथंचित् सत्यार्थ और कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है, कथंचित् उपादेय और कथंचित् हेय कहा गया है।
व्यवहारनय की सबसे बड़ी उपयोगिता उसे अभूतार्थ, असत्यार्थ, हेय जानने में है। इससे ही हमारा प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके बिना हमारा प्रयोजन सधने वाला नहीं।
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निश्चयनय: भेदप्रभेद
निश्चयनय सामान्य विशेषात्मक वस्तु के सामान्य अंश को विषय बनाता है । सामान्य एक होता है, अतः उसे विषय बनाने वाला नय भी एक ही होगा, अनेक नहीं। अतः 'नतथा" लक्षणवाला निश्चयनय एक है, अभेद्य है।
निश्चयनय अभेद्य क्यों ? - निश्चयनय के अन्य भेदों को विवक्षानुसार कभी निश्चय तो कभी व्यवहार कह दिया जाता है । जैसे एकदेश शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय व्यवहार है, साक्षात् शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा एकदेशनिश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय व्यवहार है तथा परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा साक्षात् शुद्ध निश्चयनय, एकदेश शुद्धनिश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय और व्यवहार ही हैं। परन्तु परमशुद्ध निश्चयनय कभी भी व्यवहारपने को प्राप्त नहीं होता, उसके कोई भेद नहीं होते; अतः वास्तविक निश्चयनय को भेदों में भेदा सह्य नहीं, वह तो अभेद्य ही है।
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अन्यनय व्यवहारपने को प्राप्त क्यों ? द्रव्यस्वभाव को ग्रहण करने वाला होने से एकमात्र परमशुद्ध निश्चयनय ही वास्तविक निश्चयनय कहलाता है; शेष नय पर्याय स्वभाव को ग्रहण करने वाले होने से एवं निषेध्य होने के कारण व्यवहारपने को प्राप्त हो जाते हैं।
१. पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, श्लोक ६५७
२. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ८२
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निश्चयनय: भेद-प्रभेद
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अन्य नय निषेध्य क्यों ? नयों के प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, अतः उनका निषेध करना अनिवार्य हो जाता है। यदि उनका निषेधन करें तो उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया रुक जाती है। अतः तत्संबंधी प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर, आगे बढ़ने के लिए, आगे के प्रयोजन की सिद्धि के लिए पूर्वकथित नय का निषेध एवं आगे के नय का प्रतिपादन इष्ट हो जाता है। इसीलिए एकदेश शुद्धनिश्चयनय अशुद्ध-निश्चयनय का, साक्षात शुद्ध निश्चयनय एकदेश शुद्धनिश्चयनय का तथा परमशुद्धनिश्चयनय साक्षातशुद्धनिश्चयनय आदि पूर्व के नयों का निषेध करता है। इसक सभी नय अपने पूर्व के नयों का निषेध करते हैं।'
परमशुद्ध निश्चयनय निषेध्य क्यों नहीं? इस नय में द्रव्य की दृष्टि से कथन किया जाता है । यह नय पर्यायगत अशुद्धता को छोड़कर द्रव्यगत शुद्धता को विषय बनाता है अर्थात् जो अनादि से है अनन्त काल तक जीव के साथ रहेगा। ऐसे सामान्य द्रव्य को विषय बनाता है। इस नय का विषयभूत शुद्धात्मद्रव्य ही दृष्टि का विषय है। ध्यान का ध्येय है। इसके आश्रय से ही आत्मानुभूति होती है, मुक्ति होती है, अतः यह निषेध्य नहीं है।
क्या नय सर्वथा निषेध्य हैं? नहीं, नय सर्वथा निषेध्य नहीं हैं, क्योंकि कथंचित् निषेध्य हैं। प्रत्येक नय अपने-अपने प्रयोजन की सिद्धि करने वाला होने से स्वस्थान में निषेध करने योग्य नहीं है ।
अभेद्य निश्चयनय के भेद क्यों? पर और पर्याय से भिन्न निज शुद्धात्मस्वरूप को समझने-समझाने के लिए विषयवस्तु के आधार पर अभेद्य निश्चयनय के भेद किए गए हैं।
निश्चयनय के भेद कितने - निश्चयनय के सामान्यतः दो भेद किये जाते हैं -
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ९९