Book Title: Navkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Author(s): Ravindra Jain, Kusum Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 133
________________ महामन्त गमोकार अर्थ, ग्यास्या (पदक्रमानुसार) / 129 लगाव नही होता है। उनका ससार होता ही नही है अत उनकी समस्त चित्तवृत्तिया स्वाध्याय और नये-नये चिन्तन में लगी रहती है। आज का अध्यापक, प्राध्यापक एव प्राचार्य प्राय यान्त्रिक चेतना से अनुचालित होता है और व्यापार बुद्धि से ही पाठ्यक्रममूलक अध्यापन करता है। उसका अपने विषय के प्रति प्राय तादात्म्य या सगात्मक सम्बन्ध नही रहता है। वह केवल 'अनिवार्य कार्य भार' तक ही सीमित रहता है। अपवाद स्वरूप कतिपय विद्वान ऐसे भी होते हैं जो अद्भुत प्रतिभा के धनी होते हैं, निरन्तर स्वाध्याय और अनुसधान करते रहते हैं। परन्तु वे गृहस्थ होते हैं एव ससार से बद्ध होते हैं अत उनका अधिकाश समय ज्ञान-साधना मे व्यतीत नहीं होता है। उनकी प्रतिभा का पूर्ण विकास सम्भव नही हो पाता है। उपाध्याय विशुद्ध गुरु होते हैं। उनमे ज्ञान और चारित्र्य की अगाध गुरुता रहती है। वे परम निर्लोभी होते हैं। कभी व्यापार भाव से विद्यादान नही करते हैं। ऐसे परम गुरु का शिष्य होना किसी का भी अहोभाग्य हो सकता है। गुरु को किसी भी स्तर पर लघ नही होना चाहिए। उपाध्याय परमेष्ठी उस विद्या और उस ज्ञान को देते है जिससे समस्त सासारिकता अनायास प्राप्त होती है और शिष्य उसे त्यागता हुआ आत्मा के परमधाम मोक्ष मे दत्तचित्त होता चला जाता है। महाकवि भत हरि ने विद्या की विशेषता के विषय मे बहुत सटीक कहा है-- "विद्या ददाति विनयं, विनयावाति पात्रताम् । पात्रत्वात धनमाप्नोति, धनाति धर्म तत सुलम् ॥" -नीतिशतकम् अर्थात् विद्या से विनय, विनय से सत्पात्रता, सत्पावता से धन, धन से धर्म, धर्म से सुख-और आत्मा की चरम उपलब्धि-मुक्ति का सुख' प्राप्त होता है। ज्ञानहीन मानव पशु के समान है, वह शव है। ज्ञान से ही शव मे शिवत्व अर्थात् चैतन्य और परकल्याण एव आत्मवल्याण के भाव जागृत होते हैं। यह लोकोत्तर कार्य उपाध्याय परमेष्ठी द्वारा ही सम्भव होता है। मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की ज्ञानाश्रयी निर्गुण धारा के प्रमुख कवि कबीरदासजी ने तो गुरु को साक्षात् ईश्वर ही माना है

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