Book Title: Nandisutra ke Vruttikar tatha Tippankar Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 3
________________ જ્ઞાનાંજલિ ४६ सत्तर्ककर्कशधियः सुविशुद्धबोधाः सुव्यक्तसूक्तशतमौक्तिकशुक्ति कल्पाः । तेषामुदारचरणाः प्रथमाः सुशिष्याः सद्योऽभवन्नजितसिंहमुनीन्द्रवर्याः ॥७॥ तेषां द्वितीयशिष्या जाताः श्रीमद्धनेश्वराचार्याः । सार्द्धशतकस्य वृत्तिं गुरुप्रसादेन ते चक्रुः ।।८॥ शशि१मुनि७पशुपति ११सङ्खये वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते । चैत्रे सितसप्तम्यां समर्थितेयं गुरौ वारे॥९॥ युक्तायुक्तविवेचन-संशोधन-लेखनैकदक्षस्य । निजशिष्यसुसाहाय्याद् विहिता श्रीपार्थदेवगणेः ॥१०॥ प्रथमादर्श वृत्तिं समलिखतां प्रवचनानुसारेण । मुनिचन्द्र-विमलचन्द्रौ गणी विनीतौ सदोद्युक्तौ ॥११॥ श्री चक्रेश्वरसूरिभिरतिपटुभिनिपुणपण्डितोपेतैः । अणहिलपाटकनगरे विशोध्य नीता प्रमाणमियम् ॥१२॥ इस प्रशस्तिमें आचार्य श्री श्रीचन्द्रसूरिकी पूर्वजपरम्परा इस प्रकार है चन्द्रकुलीन श्रीधनेश्वराचार्य श्रीअजितसिंहसूरि श्रीवर्धमानसूरि श्रीशीलभद्र सूरि श्रीअजितसिंहसूरि श्रीधनेश्वरसूरि श्रीपार्श्वदेवगणि-श्रीश्रीचन्द्रसूरि न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी प्रशस्तिका ऊपर जो उल्लेख किया है उसके अंतमें 'श्रीश्रीचन्द्रन रिका ही पूर्वावस्थामें पार्श्वदेवगणि नाम था' ऐसा जो उल्लेख है वह खुद ग्रन्थप्रणेताका न होकर तत्कालीन किसी शिष्य-प्रशिष्यादिका लिखा हुआ प्रतीत होता है । अस्तु, कुछ भी हो, इस उल्लेखसे इतना तो प्रतीत होता ही है कि--श्रीचन्द्रचाार्य ही पार्श्वदेव गणि हैं या पार्श्वदेवगणी ही श्री श्रीचन्द्रसूरि हैं, जिनका उल्लेख धनेश्वराचार्यने सार्धशतकप्रकरणकी वृत्तिमें किया है। श्रीश्रीचन्दसूरिका अचार्यपद . श्रीश्रीचन्द्रसूरिका आचार्यपद किस संवतमें हुआ ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है, फिर भी आचार्यपदप्राप्तिके बादकी इनकी जो ग्रन्थरचनायें आज उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहली रचना निशीथचूर्णिविंशोदेशकव्याख्या है। जिसका रचनाकाल वि. सं. ११७४ है । वह उल्लेख इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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