Book Title: Nandisutra ke Vruttikar tatha Tippankar
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 7
________________ જ્ઞાનાંજલિ रचना होनेकी ओर आकर्षण करता है। फिर भी इस बातका वास्तविक निर्णय मैं तज्ज्ञ विद्वानोंके पर छोड देता हूँ। ऊपर मैंने श्री श्रीचन्द्राचार्यकी रचनाओं के नाम और उनके अन्तकी प्रशस्तियोका उल्लेख किया है, उनको देखते ही विद्वानोंके दिलमें एक कल्पना जरूर ऊठेगी कि इन आचार्यकी विक्रम संवत् ११६९, ११७४, ११७८, ११८०, १२२२, १२२७, १२२८ आदि संवतमें रची हुई जो कृतियाँ पाई गई हैं उनमें सं. ११८० बाद एकदम उनकी रचना सं. १२२२ में आ जाती है, तो क्या ये आचार्य चालीस वर्षके अंतरमें निष्क्रिय बैठे रहे होंगे ? जरूर यह एक महत्त्वका प्रश्न है, किन्तु अन्य साधनोंके अभावमें इस समयमें इतना ही जवाब दे सकता हूँ कि - प्राचीन ग्रन्थोकी सूची बृहट्टिप्पनिकामे, जैनग्रन्थावली आदिमें १ श्रमणप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, २ जयदेवछन्दःशास्त्रवृत्तिटिप्पनक, ३ सनत्कुमारचरित र. सं. १२१४ ग्रं. ८१२७ आदि नाम पाये जाते हैं । इसी तरह इनकी और कृतियां जरूर होगी, किन्तु जब तक ऐसी कृतियां कहीं भी देखने-सुनने में न आयें तब तक इनके विषयमें कुछ कहना उचित प्रतीत नहीं होता है । परन्तु यह तो निर्विवाद है कि-बिचके वर्षों में रची हुई इनकी ग्रन्थकृतियाँ अवश्यमेव होनी चाहिए। पाटन - श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरस्थित श्रीसंघजैनज्ञानभंडार क्रमांक १०२३ वाली प्रकरणपुस्तिकामें श्री श्रीचन्द्राचार्यकृत अनागतचतुर्विंशतिजिनस्तोत्र है, जो यहां उपयुक्त समझ कर दिया जाता है, किन्तु यह कृति कौनसे श्रीचन्द्राचार्यकी है यह कहना शक्य नहीं है । स्तोत्र - वीरवरस्स भगवओ वोलियचुलसीयवरिससहसेहिं । पउमाई चउवीसं जह हुंति जिणा तहा थुणिमो॥१॥ पढमं च पउमनाई सेणियजीवं जिणेसरं नमिमो । बीयं च सूरसेणं वंदे जीवं सुपासस्स ॥२॥ तइयं सुपासनामं उदायजीवं पणद्वैभववासं । वंदे सयंपभजिणं पुट्टिलजीवं चउत्थमहं ॥३॥ सव्वाणुभूयनामं दढउजीवं च पंचमं वंदे । छटुं देवसुयजिणं वंदे जीवं च कित्तिस्स ॥४॥ सत्तमयं उदयजिणं वंदे जीवं च संखनामस्स । पेढालं अट्टमयं आणंदजियं नमसामि ॥५॥ पुट्टिलजिणं च नवमं सुरकयसे सुनंदजीवस्स । सयकित्तिजिणं दसमं वंदे सयगस्स जीव ति ॥६॥ एगारसमं मुणिमुवयं च वंदामि देवईजीवं । बारसमं अममजिणं सच्चइजीवं जगपईवं ॥७॥ निकसायं तेरसमं वंदे जीवं च वासुदेवस्स । बलदेवजियं वंदे चउदसमं निप्पुलाइजिणं ॥८॥ सुलसाजीवं वंदे पनरसमं निम्ममत्तनामाणं । रोहिणिजीवं नमिमो सोलसमं चित्तगुत्तं ति ॥९॥ सत्तरसमं च वंदे रेवइजीव समाहिजिणनाम । संवरमद्वारसमं सयालिजीवं पणिवयामि ॥१०॥ दीवायणस्स जीवं जसोहरं वंदिमो इगुणवीसं । कन्हजियं गयतन्हं वीसइमं विजयमभिवंदे ॥११॥ वंदे इगवीसइमं नारयजीवं च मल्लिनामाणं । देवजिणं बावीसं अंबडजीवस्स वंदे हं ॥१२॥ अमरजियं तेवीसं अणंतविरियाभिहं जिणं वंदे । तह साइबुद्धजीवं चउवासं भदजिणनामं ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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