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જ્ઞાનાલિ
९४] ताडपत्रीय प्रतियोंसे मिलाया गया है, तथापि सम्भव है कि प्राचीन कालसे ही नन्दिटिप्पनकके नामको निर्देश करनेवाली गाथा छूट गई हो। अस्तु, कुछ भी हो, फिर भी जब विशेषावश्यकत्तिके अंतमें खुद श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज आप ही नन्दिटिप्पनकरचनाका निर्देश करते हैं तो यह निर्विवाद ही है कि आपने नन्दिटिप्पनककी रचना अवश्यमेव की थी, जो आज नहीं पाई जाती है।
नन्दीविषमपदटिप्पनक ___ इस ग्रन्थाङ्कमें पृ. १८२ से १८६में नन्दीसूत्रवृत्तिविषमपदटिप्पनक मुद्रित है। इस टिप्पनकको श्री चन्द्रकीर्तिमरिकी कृति बतलाया है, किन्तु यह रचना वास्तवमें उनकी रचना नहीं है । इस टिप्पनकके मुद्रण समय खंभातकी वि. सं. १२१२ में लिखित ताडपत्रीय प्रतिको ध्यानमें रख कर, एवं पाटनके भंडारोंको कुछ प्रतियोंके अन्त भागमें निरयावलिकादिपंचोपाङ्गपर्याय और नन्दीवृत्तिविषमपदपर्यायको इसी टिप्पनकके साथ देख कर 'श्रीचन्द्रकीर्तिमरिकृत' ऐसा लिख तो दिया है, किन्तु खंभातके भंडारकी और जैसलमेरके भंडारकी प्राचीन ताडपत्रीय निःशेषसिद्धान्तपर्याय और सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्यायकी प्रतियोंको गौरसे देखी तब यह समझ भ्रान्त प्रतीत हुई है । खंभातके भंडारकी प्रतिमें और जैसलमेरभंडारकी प्रतिमें अलग अलग सिद्धान्तोके पर्याय होनेसे दोनों प्रतियाँ जुदी जुदी हैं । अतः इतना निश्चित होता है कि - खंभातकी निःशेषसिद्धान्तपर्यायकी प्रति, जो जिस वर्षमें ग्रन्थरचना हुई उसी वर्षमें लिखी हुई है, उसमें जितने सिद्धान्तोंके पर्याय हैं, उतनी ही श्रीचन्द्रकीतिमूरिकी रचना है। शेष सिद्धान्तपर्यायोंकी रचना किसी अन्य गीतार्थकी रचना है, जिसका नाम ज्ञात नहीं है। खंभात भंडारकी प्रतिमें नन्दीविषमपदपर्याय नहीं है, तब जैसलमेर भंडारकी प्रतिका प्रारम्भ नन्दीविषमपदपर्यायसे ही होता है । अतः यह निर्विवाद ही है कि इस मुद्रित नन्दीविषमपदटिप्पनककी रचना श्रीचन्द्रकीर्तिमरिकी न हो कर किसी अन्य गीतार्थकी रचना है।
नन्दीविषमपदपर्याय प्रायशः नन्दीवृत्तिदुर्गपदव्याख्यासे उद्धृत होने के कारण, अज्ञातकर्तृक अन्य सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय ग्रन्थ अगर एककर्तृक ही है तो, यह रचना निर्विवादरूपसे श्री श्रीचन्द्राचार्यके बाद की ही है।
यहाँ पर विद्वानों की जानकारीके लिये उपयुक्त समझ कर खंभातकी प्रतिका पूर्ण परिचय दिया जाता है--
क्रमाङ्क ८७ (१) निःशेषसिद्धान्तविचार (व्यवहार सप्तमोद्देशपर्यन्त) पत्र १२९वा + १-२१०
(२) निःशेषसिद्धान्तविचार (व्यवहार अष्टमोदेशसे आगे) पत्र १ -२०
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