Book Title: Nandisutra ke Vruttikar tatha Tippankar
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 13
________________ જ્ઞાનાંજલિ (६) कतिचित् सिद्धान्त विचार तथा पर्याय पत्र ११ यहाँ पर खंभातके श्री शान्तिनाथ ताडपत्रीय जैन ज्ञानभंडारको क्रमांक ८७ पुस्तिकाका जो विवरण और प्रशस्तियां दी गई हैं इससे ज्ञात होता है कि- यह प्रति दो खंडमें विभक है। प्रथम खंडके प्रारंभके १२८ पत्र इस समय प्राप्त नहीं हैं, जिनमें संभव है कि-आचार्य श्री चन्द्रकीर्तिसूरिकी ही कोई कृति होगी। १२९ वा+१-२२०+१-२० पत्रोंमें अंग-उपांग-छेद-आगमगत उपयुक्त विचारोंका संग्रह है, जो आचार्य श्री चन्द्रकीर्तिने अपने विद्यागुरु श्री धर्मघोषसरिके पास जैन सिद्धान्तोंका श्रवण-अध्ययन करते करते किया है, जिसका निर्देश आपने प्रशस्तिपद्यमें किया है। २१से २३ पत्रोंमें प्रतिष्ठाविधि एवं प्रायश्चित्ताधिकारका संग्रह है। पत्र २४से १११में निःशेषसिद्धान्तपर्याय हैं, जिनमें आचार्य श्री चन्द्रकीर्तिने पञ्चवस्तुक, आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाग, भगवतीसूत्र, प्रश्नव्याकरण, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, निशीथचूर्णि, कल्प, व्यवहार, पञ्चकल्प, दशा, जीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, इन सोलह शास्त्रोंके पर्याय अर्थात् विषमपदके अर्थ दिये हैं। पाटन, जैसलमेर आदिके ज्ञानभंडारको प्रतियोंमें नन्दीसूत्रवृत्ति, आवश्यकवृत्ति, दशवकालिकवृत्ति, ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, पिण्डनियुक्तिगाथा, उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवतीसूत्र, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, प्रज्ञापनाविवरण, जीतकल्प, इन सोलह शास्त्रोंके पर्याय हैं । यद्यपि इस सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय ग्रन्थमें आचाराङ्गादि शास्त्रोके पर्याय अवश्यमेव शामिल हैं, तथापि दोनों पर्याय अलग अलग हैं । कितनेक शास्त्रोंके पर्याय श्रीचन्द्रकीर्तिसूरिकी रचनामें विस्तृत हैं, तो कितनेक शास्त्रोंके पर्याय दूसरी रचनामें विस्तृत हैं। इसी तरह कितनेक शास्त्रोंके पर्याय परस्पर एक दूसरमें नहीं भी हैं। यह दोनों विषमपदपर्यायकी दी हुई सूचीयों को देखनेसे प्रतीत होगा । अतः दोनों विषमपदपर्यायकारोंका प्रयत्न अलग अलग है, ग्रन्थ भी जुदे हैं, ग्रन्थकार भी भिन्न हैं । पाटनके भंडार आदिमें ऐसी प्रतियां भी नजर आती हैं, जिनमें दोनों विषमपदपर्याय ग्रन्थ साथमें लिखे हैं। किन्तु आचार्य चन्द्रकीतिमूरिकी ग्रन्थरचनाप्रशस्ति खंभातकी प्रतिके सिवा और कोई प्रतिमें नजर नहीं आती है, जो अनेक दृष्टि से महत्त्वकी है। . इस प्रशस्तिको देखनेसे पता चलता है कि- यह प्रति श्रावक यशोदेवने वि. सं. १२१२ आषाढमासमें खुद ग्रन्थकार श्री चन्द्रकीतिमूरिके लिये लिखवाई है । साथमें इस प्रशस्तिको देखते हुए ग्रन्थरचनाका समय भी वि. सं. १२१२ संभावित किया जा सकता है। यह पुस्तिका खुद ग्रन्थकारके लिये लिखवाई होनेके कारण इस प्रतिको प्रथम प्रति कह सकते हैं, इस दृष्टिसे इस प्रतिका और भी महत्व बढ जाता है । इन आचार्यकी अन्य कोई कृति अभी तक देखने में नहीं आई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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