Book Title: Nandisutra ke Vruttikar tatha Tippankar Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 9
________________ ४२] જ્ઞાનાંજલિ पूर्वापर उल्लेखोंका अनुसंधान करनेसे प्रतीत होता है कि-पृथ्वीचन्द्रचरितमें निर्दिष्ट श्रीधनेश्वराचार्य और श्री श्रीचन्द्राचार्य जुदा हैं । इसका कारण यह है कि - यद्यपि पृथ्वीचन्द्रचरितमें निर्दिष्ट धनेश्वराचार्य कौन थे ? किनके शिष्य थे ? यह स्पष्ट नहीं है, तो भी श्री श्रीचन्द्राचार्य, जिनकी सहायसे श्री शान्तिसूरिको सूरिपद प्राप्त हुआ था, वे चन्द्रकुलीन श्री सर्वदेवसूरिके हस्तसे दीक्षा पाये थे, ऐसा तो इस प्रशस्तिमें साफ उल्लेख है, इससे ज्ञात होता है कि --- पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्री श्रीचन्द्राचार्यसे पृथ्वीचन्द्रचरितनिर्दिष्ट श्रीचन्द्राचार्य भिन्न हैं । दूसरी बात यह भी है कि-- पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्री श्रीचन्द्राचार्यका आचार्यपद, मैं ऊपर लिव आया हूँ तदनुसार, वि. सं. ११७१ से ११७४ के बीचके किसी भी वर्षमें हुआ है; तब पृथ्वीचन्द्रचरितकी रचना वीरसंवत् १६३१ अर्थात् विक्रमसंवत् ११६१ में हुई है, जिस समय शान्त्याचार्यको आचार्यपदप्रदानकरनेके लिये सहायभूत होनेवाले श्री श्रीचन्द्राचार्य प्रौढावस्थाको पा चूके थे । अतः ये धनेश्वराचार्य और श्रीचन्द्राचार्य प्रस्तुत नन्दीसूत्रवृत्तिदुर्गपदव्याख्याकार श्रीचन्द्राचार्य और उनके गुरु धनेश्वराचार्यसे भिन्न ही हो जाते हैं। इस प्रकार यहाँ नन्दिवृत्तिदुर्गपदव्याख्याकार चन्द्रकुलीन श्री श्रीचन्द्राचार्यका यथासाधनप्राप्त परिचय दिया गया है। मलधारी श्रीहेमचन्द्रसरिकृत नन्दिटिप्पनक ___इस नन्दिवृत्तिके ऊपर मलधारगच्छीय आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिकृत टिप्पनक भी था, जो आज प्राप्त नहीं है । आज पर्यंतमें मैंने संख्याबन्ध ज्ञानभंडारोंको देखे हैं, इनमेंसे कोई ज्ञानभंडारमें वह देखनेमें नहीं आया है। फिर भी आपने इस टिप्पनककी रचना की थी-इसमें कोई संशय नहीं है। खुद आपने ही विशेषावश्यकमहाभाष्यवृत्तिके प्रान्त भागमें अपनी ग्रन्थरचनाओंका उल्लेख करते हुए इस रचनाका भी निर्देश किया है जो इस प्रकार है इह संसारवारांनिधौ मां निमग्नं....अवलोक्य कोऽपि....महापुरुषः....चारित्रमयं महायानपात्रं समर्पयामास । भणितवांश्च-भो महाभाग ! समधिरोह त्वमस्मिन् यानपात्रे । समारूढश्चात्र....भवजलधिमुत्तीर्य प्राप्स्यसि शिवरत्नद्वीपम् । समर्पितं च मम तेन महापुरुषेण सद्भावनामञ्जूषायां प्रक्षिप्य शुभमनोनामकं महारत्नम् । अभिहितं च मां प्रति - रक्षणीयमिदं प्रयत्नतो भद्र !। ........ एतदभावे तु सर्वमेतत् प्रलयमुपयाति । अत एव तव पृष्ठतः सर्वादरेणैतदपहरणार्थ लगिष्यन्ति ते मोहराजादयो दुष्टतस्कराः । ........ ' रे रे तस्कराधमाः! किमेतदारब्धम् ? स्थिरीभूय लगत लगत सर्वात्मना' इति ब्रुवाणो मोहचरटचक्रवर्ती ससैन्य एवाऽऽरब्धो युगपत् प्रहर्तुम् । केचित्वतीवच्छलघातिनो मोहसैनिकाः ....... जर्जरयन्ति सद्भावनाङ्गानि । ततो मया तस्य परमपुरुषस्योपदेशं स्मृत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यकटिप्पनकाभिधानं सद्भावनामञ्जूषायां नूतनफलकम् , ततोऽपरमपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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