Book Title: Namaskar Mahamantra Author(s): Devendravijay Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 2
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म अर्थात् ३३ अक्षरप्रमाण चूलिकासहित नमस्कारमंत्र का णमो उबज्झायाणं। इनमें से प्रथम शुद्ध और दूसरा अशुद्ध है। स्मरण करना चाहिए। जो लोग ऐसा कहते हैं कि ३५ अक्षर उच्चारण भी प्रथम पद का ही होता है। न कि दूसरे पद का। प्रमाण ही नमस्कारमंत्र पठनीय है, उनको उक्त प्रमाण का तात्पर्य महानिशीथसूत्र में तथा भगवतीसूत्र में 'णमो उवज्झायाणं' ही समझना चाहिए। लिखा है। नमस्कार मंत्र का संक्षिप्त अर्थ : पाँचवाँ पद ‘णमो लोए सव्व साहूणं' है। इस पद को णमो अरिहंताणं : नमस्कार हो अरिहंतों के लिए। अनेक मनुष्य 'णमो लोये सब्ब साहणं' ऐसे लिखते तथा बोलते णमो सिद्धाणं : नमस्कार हो सिद्धों के लिए। हैं, जो अशुद्ध है। वास्तव में ‘णमो लोए सव्व साहूणं' ही लिखना णमो आयरियाणं : नमस्कार हो आचार्य महाराज के लिए। तथा बोलना चाहिए। महानिशीथसूत्र में यही पद प्राप्त है। . णमो उवज्झायाणं : नमस्कार हो उपाध्यायजी महाराज के लिए। इन पाँचों पदों के आदि में णमो आता है, यह भी दो प्रकार णमो लोए सव्व साहूणं : नमस्कार हो ढाई द्वीप प्रमाण लोक में विचरने वाले समस्त साधु-मुनिराजों के लिए। से लिखा जाता है - णमो और नमो ये दोनों शुद्ध हैं ; क्योंकि एसो पंच नमुक्कारो : यह पाँचों को किया हुआ नमस्कार। नमो के नकार का 'वाऽऽदौ' ।८।१।२२९। सूत्र के विकल्प से सव्व पावप्पणासणो : सब पापों का नाश करने वाला है। णकार होता है। विकल्प का मतलब है कि एक पक्ष में होता है मंगलाणं च सव्वेसिं : और सब मंगलों में, अथवा नहीं भी होता है, किन्तु नमस्कार मंत्र प्राकृत होने से नमो पढमं हवइ मंगलं : प्रथम मंगल है। के स्थान पर णमो लिखना ठीक है। किस पद में कौन से अक्षर सिद्धहेमव्याकरण (प्राकृत) नमस्कार-मंत्र के नौ पद और अडसठ अक्षर हैं। इसके यद्यपि प्राकृत-कल्पलतिका, प्राकृत-प्रकाश, षड्भाषाप्रथम पद को तीन प्रकार से लिखा जाता है - णमो अरिहताणं, चन्द्रिका, प्राकृतमंजरी और प्राकृतलक्षण आदि अनेक प्राकृतणमो अरहंताणं और णमो अरुहंताणं। इनमें से अरहताणं और व्याकरणें प्राप्त हैं। तथापि जिस सरलतम प्रकार से कलिकाल अरुहंताणं नहीं, अपितु वास्तुव में “अरिहंताणं" ही लिखना चाहिए। -सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने श्री सिद्धहेम - श्रीमहानिशीथसूत्र और श्री भगवतीसूत्र में “अरिहंताणं" ही शब्दानुशासन के अष्टमाध्याय में विस्तारपूर्वक प्राकृत भाषा के लिखा है। श्री आवश्यकसूत्र में तथा श्री विशेषावश्यकभाष्य में व्याकरण को समझाया है, वैसे अन्य वैयाकारणों ने नहीं। अतः श्री भद्रबाह स्वामी और श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'अरिहंताणं' यहाँ जहाँ-जहाँ भी शब्दों की संस्कृत में सिद्धि की गई है, वहाँ वहाँ श्री सिद्धहेम-प्राकत-व्याकरण के सत्रों को ही लिया है। इस पद को ही व्याख्या की है। संस्कृतसिद्धि लघुसिद्धान्तकौमुदी (पाणिनीय व्याकरण) के अनुसार दसरा पद "णमो सिद्धाणं" है। यह सर्वत्र एक समान ही म सवत्र एक समान हा की है; क्योंकि मेरा प्रवेश (अध्ययन) पाणिनि-व्याकरण का है। लिखा मिलता है। इसमें किसी प्रकार का विकल्प नहीं है। यहाँ हम क्रमश: अरिहंत सिद्धादि पाँचों पदों का पूर्वाचार्य तीसरा पद “णमो आयरियाणं" है। इस पद को 'आयरियाणं, -सम्मत अर्थ चाल में और पाँचों पदों की प्रक्रिया यथास्थान आयरीयाणं, आइरियाणं और आइरीयाणं' इस प्रकार चार तरह पादटिप्पणियों में लिख रहे हैं। से लिखा जाता है, परन्तु वास्तव में 'आयरियाणं' ही लिखना चाहिए, न कि आयरीयाणं, आइरियाणं या आइरीयाणं। श्री ओरहत का अर्थ: महानिशीथसूत्र के तीसरे अध्याय में और भगवतीसूत्र में 'अरिहंत'३ शब्द का अर्थ श्रीभद्रबाहु स्वामी ने 'आयरियाणं' ही आलेखित है। आवश्यकनियुक्ति में इस प्रकार किया है : चौथा पद 'णमो उवज्झायाणं' है। लेखन-दोष के कारण "इन्दिय विसय कसाये, परिसहे वेयणा उवसग्गे। यह पद दो प्रकार से लिखा मिलता है - णमो उवज्झायाणं और एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण उच्चति ।।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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