Book Title: Namaskar Mahamantra Author(s): Devendravijay Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 8
________________ जिनेश्वर, स्याद्वादि, अभयद, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, देवाधिदेव, बोधिद, पुरुषोत्तम, वीतराग और आप्त । यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म ऐसे परम महिमावन्त श्री अरिहंत भगवान की महिमा का गान करते हुए जैनाचार्यवर्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज श्री सिद्धचक्र - पूजा में लिखा है - तित्थयरं नाम पसिद्धिजायं, णरामरेहिं पणयं हि पायं । संपुण्णनाणं पयडं विसुद्धं, नमामि सोहं अरिहन्तबुद्धं । । १ । । (तीर्थंकरनाम्ना प्रसिद्धि प्राप्तं नरामरैः यस्य प्रणतं हि पादम् । सम्पूर्णज्ञानयुक्तं विशुद्धं नमामि सोऽहमरिहन्तं बुद्धम् । । ) तीर्थंकर इस नाम से जो प्रसिद्ध को प्राप्त हुए हैं, जिनके चरणकमलों को मनुष्य और देवता प्रणाम करते हैं। जो सम्पूर्ण ज्ञानी हैं, स्वयं विशुद्ध हैं, वे ही अरिहंत बुद्ध हैं। उन्हीं को मैं नमस्कार करता हूँ। सिद्ध" घ्यातं सितं येन पुराणकर्म यो वा गतो निर्वृत्तिसौधमूर्धिन, ख्यातोनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ।। : जिसने बहुत भवों के परिभ्रमण से बाँधे हुए पुराने कर्म भस्मीभूत किए हैं, जो मुक्ति रूप महल के उच्च भाग पर जा चुके हैं या जो प्रख्यात हैं, शास्ता हैं, कृतकृत्य हैं, वे सिद्ध मुझे मंगलकारी हों। जिन्होंने संसार - भ्रमण - मूलक समस्त कर्म पराजित कर दिए हैं। जो मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं, जिनका पुनर्जन्म नहीं होता, वे सिद्ध कहे गए हैं। ऐसे सिद्ध भगवान नमस्कार मंत्र के द्वितीय पद पर विराजित हैं। श्री आवश्यकनियुक्ति में ग्यारह प्रकार के सिद्ध इस प्रकार गिनाए गये हैं - कम्म सिप्पे य विज्जाए, मन्ते जोगे य आगमे । अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ।। १. कर्मसिद्ध, २. शिल्पसिद्ध, ३. विद्यासिद्ध, ४. मंत्रसिद्ध, ५. योगसिद्ध, ६. आगमसिद्ध, ७. अर्थसिद्ध, ८. यात्रा - सिद्ध, ९. अभिप्रायसिद्ध, १०. तपसिद्ध और ११ कर्मक्षयसिद्ध। इन सब सिद्धों में से यहाँ कर्मक्षयसिद्ध ही लिये गये हैं । न कि कर्मसिद्धादि अन्य । सिद्ध भगवान ज्ञानावरणीयादि चार घनघाति और आयु आदि चार अघनघाति कर्मों का सर्वथा Jain Education International क्षय करके सम्पूर्णरूपेण मुक्तात्मा हैं। उनके आठ गुण इस प्रकार हैं नाणं च दसणं चिय अव्वाराह तहेव सम्मतं । अक्खय ठिइ अरुवी अगुरुलहुवीरियं हवइ ।। १. अनन्तज्ञान : - ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर आत्मा को केवल ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे वह संसार के समस्त चराचर पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जान सकता है। जो अप्रतिपातिज्ञान भी कहलाता है । २. अनन्तदर्शन - पाँचों प्रकृतियों सहित दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होने पर आत्मा को केवल दर्शन प्राप्त होता है. जिससे वह लोक के समस्त पदार्थों को देख सकता है। ३. अनन्त अव्याबाध सुख वेदनीय कर्म का सर्वथैव प्रकारेण क्षय होने से आत्मा अनिर्वचनीय अनन्त सुख प्राप्त करती है। उसे अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है। यानी जो सुख पौद्गलि संयोग से मिलता है, उसको सांयोगिक सुख कहा जाता है। इसमें किसी न किसी प्रकार की विघ्न- परम्परा का आना हो सकता है, किन्तु जो सुख पौद्गलिक संयोग के बिना प्राप्त हुआ है, उसमें कदापि किसी प्रकार के विघ्नों का आना सम्भव ही नहीं होने से वह अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है। ४. अनन्त चारित्र - दर्शन - मोहनीय और चारित्र - मोहनीय (जो कि आत्मा के तत्त्वश्रद्धान गुण और वीतरागत्व - प्राप्ति में विघ्न रूप हैं) के क्षय होने पर आत्मा अनन्त चारित्र को प्राप्त करती है । उसको अनन्त चारित्र कहते हैं। - ५. अक्षय स्थिति आयुष्य-कर्म की स्थिति का पूर्ण रूप से क्षय होने पर सिद्ध जीवों का जन्म एवं मरण नहीं होने से वे सदा स्वस्थिति में ही रहते हैं। उसे अक्षय स्थिति कहते हैं। - ६. अगुरुलघुत्व - गोत्रकर्म का अंत होने पर आत्मा में न गुरुत्व और न लघुत्व ही रहता है। इसलिए उसे अगुरुलघु कहते हैं। ७. अरूपित्व - नामकर्म का अंत होने पर आत्मा सब प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म रूपों से मुक्त होकर अरूपित्व प्राप्त करती है। अरूपित्व अतीन्द्रिय यानी इन्द्रियाँ जिसे ग्रहण करने में असमर्थ रहती हैं, ऐसी अग्राह्य वस्तु को अरूपी कहते हैं। For Private Personal Use Only máàðmórárambam pormónómérképbèmbúðμ¿âybebèmèμáðmbèmbâmbèrès www.jainelibrary.orgPage Navigation
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