Book Title: Namaskar Mahamantra
Author(s): Devendravijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 17
________________ दिवाकरसूरि ने किस देव की आराधना करके श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा को प्रकट किया था ? श्री मानतुंगसूरीश्वर ने किसकी स्तुति करके शरीर की (४४) चवालीस बेड़ियों को तोड़ा था ? श्रीहीरविजय सूरि ने किसके प्रभाव से अकबर को प्रभावित किया था ? बालक नागकेतु ने कब धरणेन्द्र का स्मरण किया था ? बालक अमर कुमार ने किसका स्मरण कर अपने आपको मृत्यु के मुख से बचाया था ? श्रेष्ठिप्रवर सुदर्शन ने शूली पर किसका स्मरण किया था ? सती सुभद्रा ने किसका स्मरण करके चम्पा के द्वार खोले थे ? इन सब प्रश्नों का उत्तर मात्र इतना ही है कि सबने किसी देवी अथवा देव की आराधना नहीं की थी, अपितु उन्होंने श्रीवीतराग का अवलम्बन लेकर श्रीनवकार मंत्र का आराधन किया अथवा अन्य प्रकार से वीतराग की आराधना की थी। हमारे पूर्वाचार्यों ने देवी-देवताओं के बल पर शासन प्रभावना नहीं की, किन्तु पूर्वाचार्य भगवन्तों ने अपनी विद्वत्ता एवं चारित्रिक बल के द्वारा ही शासन - प्रभावना की है। यदि आज भी श्रद्धापूर्वक वीतराग भगवान् का अवलम्बन लेकर श्रीनमस्कार मंत्र की आराधना की जाए, तो अवश्य ही इच्छित की प्राप्ति में किसी प्रकार का अवरोध नहीं आ सकता । यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म प्रश्न आपने अन्य प्रत्यक्ष देवी-देवताओं की आराधना का निषेध कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग की ही उपासना को योग्य कहा, किन्तु वीतराग देव तो कृतकृत्य हो गए हैं। वे न तो भक्त अनुराग करते हैं और न शत्रु से द्वेष । ऐसे वीतराग की उपासना से हमको क्या लाभ प्राप्त होने की आशा है ? जो हम उनकी उपासना करें ? - ট उत्तर - वीतराग अवश्य ही राग-द्वेषजन्य प्रपंचों से पर हैं। तभी तो उनका नाम वीतराग है। वे न तो कुछ देते हैं और न भक्त से राग और शत्रु से द्वेष ही करते हैं, किन्तु श्रीवीतराग की उपासना करने से हम उपासकों को वीतरागत्व की प्राप्ति होती है, क्योंकि जैसे उपास्य की उपासना की जाती है, वैसा ही फल उपासक को प्राप्त होता है। उपास्य यदि क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त हो और उपासक उससे अपनी पर्युपासना के बदले में वीतरागत्व की प्राप्ति की आशा रखे, तो वह वृथा है । मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि उपास्य जैसा हो, उसकी उपासना से उपासक भी वैसा ही हो जाना चाहिए । आचार्यप्रवर श्रीमानतुंग Jain Education International सूरि ने श्री भक्तामर स्तोत्र के दसवें पद्य में इसी आशय को प्रकाशित किया है - नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तु तया भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।। १० ।। हे जगद्भूषण, हे प्राणियों के स्वामी भगवान् ? आपके सत्य और महान् गुणों की स्तुति करने वाले मनुष्य आपके ही समान हो जाते हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि यदि कोई स्वामी अपने उपासक को अपने समान नहीं बना लेता तो उसके स्वामीपन से क्या लाभ ? अर्थात् कुछ नहीं। हाँ तो अन्य देवी-देवता सकामी सक्रोधी लोभी एवं रागद्वेष से युक्त हैं और वीतराग इनसे रहित। अन्य देवी-देवताओं की उपासना से हमको वही प्राप्त होगा, जो उनमें है यानी कामक्रोध, लोभ, राग-द्वेषादि ही प्राप्त होंगे और वीतराग की उपासना से उपासक काम-क्रोध, माना- माया और राग द्वेषादि से दूर होकर वीतरागत्व को प्राप्त करके स्वयं भी वीतराग बन जाएगा । मुनिप्रवर श्रीयशोविजयी ने भी कहा है - इलिका भ्रमरीध्यानात् भ्रमरीत्वं यथा श्रुते । तथा ध्यायन् परमात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ।। भँवरी का निरंतर ध्यान करने से जिस प्रकार इलिकाएँ भ्रमरीत्व को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार परमात्मा (वीतराग) का निरंतर ध्यान करने से आत्मा भी परमात्मा बन जाती है। वीतराग की सम्यक् उपासना करने से जब हमारी आत्मा वीतरागत्व को भी प्राप्त कर लेती है, तो अन्य सामान्य वस्तुओं का प्राप्त होना कोई आश्चर्य का कारण नहीं है। अतः सब प्रपंचों का त्याग कर श्रीवीतराग की उपासना के बीजभूत सकलागम - रहस्यभूत महामंत्राधिराज श्रीनमस्कार महामंत्र का निष्काम भक्ति से स्मरण करना ही हमारे लिए लाभप्रद है। अन्त में, निबंध में यदि कुछ भी अयुक्त लिखा गया हो, तो उसके लिए त्रिकरण - त्रियोग से मिथ्या दुष्कृत्य की चाहना करते हुए वाचकों से निवेदन है कि अपने हाथों अपनी शक्ति और समय का वृथा साधनाओं में व्यय न करते हुए सत्य की निष्पक्ष भाव से गवेषणा करके तथा उसको सत्य मान कर आत्मसाधना के मार्ग में आगे बढ़ें यही आशा है । इत्यलम् विस्तरेण । १७] For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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