Book Title: Namaskar Mahamantra
Author(s): Devendravijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 11
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा प्ररूपित बारह अंगों (द्वादशांगी) चरण-सित्तरी और करण-सित्तरी को श्रीउपाध्यायजी को पण्डित पुरुष स्वाध्याय कहते हैं। उनका उपदेश करने वाले महाराज स्वयं पालते हैं और श्रमण-संघ को पलावाते हुए विचरण उपाध्याय कहलाते हैं। अर्थात् “उप समीपे अधि वसनात् श्रुतस्यायो करते हैं। कोई श्रमण यदि चरित्र-पालन में शिथिल होता है, तो लाभो भवति येभ्यस्ते उपाध्यायाः" यानी जिनके पास निवास उसे सारणा, वारणा, चोयणा और पडिचोयणा द्वारा समझा कर करने से श्रुत (ज्ञान) का आय यानी लाभ हो उन्हें उपाध्याय २ । पुनः उसे अंगीकृत संयम-धर्मपालन में प्रयत्नशील करते हैं। कहते हैं। यदि कोई परसमय का पण्डित किसी प्रकार की चर्चा-वार्ता श्रीश्रमण-संघ में आचार्य महाराज के पश्चात महत्त्वपर्ण स्थान करने के लिए आता है, तो उसे आप अपने ज्ञान-बल से निरुत्तर श्रीउपाध्यायजी महाराज का होता है। वे संघस्थ मनियों को द्वादशांगी करते हैं और स्वसमय के महत्त्व को बढ़ाते हैं। ऐसे अनेक का मूल से अर्थ से और भावार्थ से ज्ञान करवाते हैं। श्रमणों को आचार-विचार में प्रवीण करते और चरित्र-पालन के समस्त पहलुओं ___ करते हुए, आचार्यप्रवर श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने श्रीसिद्धिचक्र तथा उत्सर्ग-अपवाद का ज्ञान कराते हैं। यौँ तो श्रीउपाध्यायजी (नवपद) पूजन में फरमाया है - महाराज साधु होने से साधु के सत्ताईस गुणों के धारक हैं ही, सुत्ताण पाठं सुपरंपराओ, जहागयं तं भविणं चिराओ। सुत्ताण पाठ सुपरपराआ तथापि उनके पच्चीस गुण इस प्रकार दिखलाए गये हैं जे साहगा ते उवझाय राया, नमो नमो तस्स पदस्स पाया ।।१।। गीयत्थता जस्स अवस्स अत्थि, विहार जेसिं सुय वज्जणत्थि । आचारांग, सूत्रकृतांगादि ग्यारह अंग, औपपातिकादि बारह उस्सग्गियरेण समग्गभासी, दित सहं वायगणाण रासी ।।२।। अंग, इन तेईस आगमों के मर्म को जानने वाले तथा उनका (सूत्राणां पाठं सुपरंपरातः यथागतं तं भव्यानां निवेदयन्ति । विधिपूर्वक मुनिवरों को अध्ययन कराने वाले और चरण-सित्तरी ये साधकाः ते उपाध्यायराजा: नमो नमः तेषां पद्भ्यः ।। तथा करण-सित्तरी इन पच्चीस गुणों के धारक श्रीउपाध्यायजी गीतार्थता यस्यावश्यमस्ति विचाराः येषां श्रुतवर्जिताः न सन्ति । महाराज होते हैं। ११ अंग और १२ उपांगों का वर्णन अभिधान उपसर्गापवादाभ्याम्सन्मार्गप्रकाशीददातुसुखं वाचकगणानां राशिः।।) राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग की प्रस्तावना में आया है । वहीं जो परम्परा से आए हुए सूत्रों के अर्थ को यथार्थ रूप से देखना चाहिये। चरण-सित्तरी और करण-सित्तरी इस प्रकार हैं- भव्य जनों को कहते हैं। जो साधक हैं, वे उपाध्याय राजा हैं, चरण-सित्तरी : उन्हीं के चरण-कमलों में बार-बार नमस्कार हो। गीतार्थता जिनके वय समण संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तिओ। वश में है। जिनके आचार-विचार शास्त्रानुगामी हैं। जो उत्सर्ग नाणाइ तियं तब कोहं, निग्गहाइं चरणमेयं ।। और अपवाद को ध्यान में रखकर सन्मार्ग का बोध देते हैं। वे ५ महाव्रत, १० प्रकार (क्षमा, मार्दव, आर्जव, निर्लोभता, उपाध्याय महाराज हम को सब सुख । तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन और ब्रह्मचर्य) का यतिधर्म, साधु:१७ प्रकार का संयम, १० प्रकार का वैयावृत्य, ९ प्रकार का ब्रह्मचर्य, ३ प्रकार का ज्ञान, १२ प्रकार का तप तथा ४ कषाय श्री नमस्कार-मंत्र के पाँचवें पद पर श्रीसाधु महाराज निग्रह। इस प्रकार सत्तर भेद चरण-सित्तरी के होते हैं। विराजमान हैं। संसार के समस्त प्रपंचों को छोड़कर पापजन्य क्रियाकलापों का त्याग करके, पाँच महाव्रत-पालन रूप वीर करण-सित्तरी : प्रतिज्ञा कर समस्त जीवों पर सम भाववृत्ति धारण करने वाले, पिंडविसोहि समिई, भावय पडिमाय इन्दिय निरोहो। सब को निजात्मवत् समझ कर किसी को भी किसी प्रकार का पडिलेहण गुत्तिओ अभिग्गहं चेव करणं तु ।। कष्ट नहीं हो, इस प्रकार से चलने वाले, मनसा-वाचा-कर्मणा ४ पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ प्रतिमा, ५ किसी का भी अनिष्ट नहीं चाहने वाले एवं समभाव-साधना में इन्द्रियों का निग्रह, २५ पडिलेहण, ३ गुप्ति तथा ४ अभिग्रह। संलग्न, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त दशा में रहने वाले, प्रमाद इस प्रकार सत्तर भेद करण-सित्तरी के होते हैं। - स्थानों असमाधि-स्थानों तथा कषायों के आगमन कारणों ఆతాసారం చారురురురుదrevarovar గారూరుడూరుగురు గారు రంగుగరంలో Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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