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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - प्रश्न - नमस्कारमंत्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय चौथा नमस्कार श्री उपाध्यायजी महाराज को किया गया और साधु यह नमस्कार का क्रम क्यों रखा गया है?
है। इसका मतलब है कि- तीर्थ के निर्माता श्री अरिहंत भगवान् उत्तर - श्री अरिहंत भगवान को सर्वप्रथम नमस्कार इसलिए कहा
ना के द्वारा उच्चारित तथा गणधर भगवन्तों के द्वारा सूत्र रूप में किया जाता है कि वे हमारे सर्वश्रेष्ठ उपकारक हैं। श्रीसिद्ध ग्राथत श्रुत का यागाद्वहनपूर्वक
ग्रथित श्रुत का योगोद्वहनपूर्वक और परमकारुणिक श्री पूर्वाचार्यवयों भगवन्तों की अपेक्षा अरिहंत भगवन्तों का उपकार निकट का
4 से सम्बद्ध शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करके संघस्थ छोटे-बड़े
स जो है, क्योंकि श्री अरिहंत भगवान तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। तीर्थ मुनि
मन मुनियों को, जो जिसके योग्य है, उसे उसी का अभ्यास करवा के द्वारा धर्ममार्ग की प्रवृत्ति होती है। अत: तीर्थ के निर्माता सर्वज्ञ
कर स्वाध्यायध्यान का प्रशस्त मार्ग बताने वाले चारित्र-पालन सर्वदर्शी भगवान् वीतराग श्री अरिहंत को ही सर्वप्रथम नमस्कार
की विधियों-प्रकारों के दर्शक श्री उपाध्यायजी महाराज होते हैं। किया जाता है। अरिहंत भगवान् ही हमको सिद्ध भगवन्तों की
आगमों का रहस्य जिन्होंने पाया है ऐसे श्री उपाध्यायजी महाराज स्थिति आदि समझाते हैं और उनके द्वारा ही हम सिद्ध भगवान
को चौथा नमस्कार किया गया है। को जानते हैं। अतः सर्वप्रथम नमस्कार अरिहंत भगवान को पाँचवाँ नमस्कार साधु महाराज को किया गया है, जिसका किया जाता है, जो योग्य ही है।
हेतु यह है कि-आचार्य और उपाध्याय महाराज से सर्वज्ञ सर्वदर्शी दसरा नमस्कार जो आठों कर्मों का सर्वथा क्षय करके वीतराग भगवान् श्री अरिहंत देव द्वारा प्ररूपित धर्ममार्ग का लोकाग्र पर विराजमान हो गए हैं, उन श्रीसिद्ध भगवन्तों को श्रवण करक उस आत्माहतकर जान कर अगाकार करक चारित्रकिया जाता है। जिसका तात्पर्य है कि - अरिहंतों को नमस्कार
धर्म के प्रतिपालन में दत्तचित्त मुनिराजों को नमस्कार करके हम करने के पश्चात् वे (अरिहंत) चार अघनघाती कर्मों का क्षय (नमस्क
(नमस्कारकर्ता), भी समता को प्राप्त कर, ममता को त्याग करके जिस सिद्धावस्था को प्राप्त होने वाले हैं उसे दूसरा नमस्कार
कर, कर्मों के ताप से आत्मा को शांत कर सकें, इसीलिए पाँचवें किया जाता है। यद्यपि कर्मक्षय की अपेक्षा से श्री सिद्ध भगवान
पद से साधु-मुनिराजों को नमस्कार किया गया है।
पद स साधु-मुनिराज अरिहंतों की अपेक्षा अधिक महत्तावन्त हैं, तथापि व्यावहारिक प्रश्न - इन पाँचों को नमस्कार करने से क्या लाभ होता है ? दृष्टि से सिद्धों की अपेक्षा अरिहंत गिने जाते हैं, क्योंकि परोक्ष
उत्तर - पञ्च परमेष्ठी को नमस्कार करने से हम को श्रीसिद्ध भगवान का ज्ञान अरिहंत ही करवाते हैं। अत: व्यावहारिक
सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र का लाभ होता है तथा वीतराग दृष्टि को ध्यान में रखकर ही प्रथम नमकार अरिहंत को और
और वीतरागोपासक श्रमणवरों की वन्दना करने से हम भी दूसरा नमस्कार सिद्धों को किया जाता है।
वीतरागदशा प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। जब हमारी भावना तीसरा नमस्कार छत्तीस गुणों के धारक प्रकृतिसौम्य भाव वीतरागोपासना की ओर प्रवाहित होती है, तब हम अच्छे और -वैद्य भावाचार्य भगवान् आचार्य महाराज को किया गया है। खराब का विवेक प्राप्त करके आस्रवद्वारों का अवरोध करके जिसका रहस्य है कि - श्री अरिहंतों के द्वारा प्रवर्तित धर्ममार्ग संवर और निर्जरा भावना को प्राप्त करके, आत्म-साधना में का, तत्त्वमार्ग का, जीवनोत्कर्षमार्ग का एवं आचारमार्ग का यथार्थ प्रवृत्त होते हैं तथा अन्त में ईप्सित की प्राप्ति भी कर सकने में प्रकार से जनता में प्रकाशन कर स्वयं आत्मसाधना में लगे रहते समर्थ हो जाते हैं। यह लोकोत्तर लाभ हमको सकलागमरहस्यभूत हैं और दूसरों को बोध देकर आत्मसाधना में लगाते हैं। तीर्थ का श्रीनमस्कारमंत्र का स्मरण करने से प्राप्त होता है। तैंतीस अक्षररक्षण करते हैं, करवाते हैं। श्रीसंघ की यथा प्रकार से उन्नति का प्रमाण नमस्कार-चूलिका में यही तो दिखलाया गया है। मार्ग प्रदर्शित करते हैं। साधना से विचलित साधकों को साधना
प्रश्र - "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधभ्यः" और की उपादेयता समझाकर संयम-मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। ऐसे
___ "अ-सि-आ-उ-सा-य नमः" ये मंत्र क्या हैं?
, महदुपकारी शासन के आधारस्तम्भ मुनिजन मानससरहंस आचार्य महाराज को इसलिए तीसरा नमस्कार किया गया है।
उत्तर - तार्किक-शिरोमणि आचार्यप्रवर श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी महाराज द्वारा किया गया नमस्कार-मंत्र का
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