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संक्षिप्तीकरण “नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः " है और अ-सि- आ-उ-सा-य नमः" यह मंत्र अरिहंत का 'अ सिद्ध' की 'सि' आचार्य का 'आ' उपाध्याय का 'उ' साधु का 'सा' ये सब मिलकर 'असि -आ-उ-सा-य नमः' यह अत्यन्त संक्षिप्त स्वरूप भी नमस्कारमंत्र का ही है। जो आदरणीय एवं स्मरणीय है। कितने ही लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें "कौड़ी की कमाई नहीं और क्षण मात्र का समय नहीं" उनके लिए थोड़ा समय लगने वाले पद स्मरणीय हैं। जिन्हें समय बहुत मिलता है, परन्तु वे आलस्य के कारण ऐसे लघु मंत्रों का स्मरण करते हैं। उन्हें तो प्रमाद को छोड़कर मूल मंत्र का ही स्मरण करना चाहिए । प्रश्न - श्री नमस्कार मंत्र का जाप किस प्रकार चाहिए ?
करना
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
उत्तर - कलिकाल - सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने योगशास्त्र में श्रीनमस्कारमंत्र के जाप का विधान विस्तारपूर्वक बतलाया है। अतः इस विषय के लिए योगशास्त्र के आठवें प्रकाश का ही अवलोकन करना चाहिए । श्रीमद् पादलिप्तसूरिजी ने श्री निर्वाणकलिका में जाप के भाष्य, उपांशु और मानस, ये तीनों प्रकार दिखलाये हैं। जो इस प्रकार हैं - नमस्कार स्मरण करने वालों से अन्य लोग भली प्रकार से सुन सकें, वैसे स्पष्ट उच्चारणपूर्वक, जो जाप होता है, उसे 'भाष्य' १४ जाप कहते हैं।
भाष्य जाप की सिद्धि हो जाने पर स्मरण करने वाला कण्ठगता वाणी से; दूसरे लोग सुन तो न सकें परन्तु उनको यह ज्ञात हो जाय कि जापकर्त्ता जाप कर रहा है; जो जाप करता है उसे उपांशजाप१५ कहते हैं।
उपांशुजाप की सिद्धि हो जाने पर जाप करने वाला स्वयं ही अनुभव करता है परन्तु दूसरों को ज्ञात नहीं हो सकता, उस जाप को 'मानस६' जाप कहते हैं।
इस प्रकार भाष्य, उपांशु और मानस जाप करने वालों में कोई सम्पूर्ण नवकार का और कोई अ-सि-आ-सा-उ-य नमः का तो कोई नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुयः का तो कोई ॐ अर्हन्नमः इस अत्यन्त संक्षिप्त परमेष्ठी - मंत्र का स्मरण करते हैं।
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ॐ अर्हन्नमः मंत्र में पंच परमेष्ठि का समावेश इस प्रकार होता है अरिहंता असरीरा आयरिया उवज्झाया तहा मुणिणो । पढक्खर निप्पण्णो ॐकारो पंच परमिट्ठी ॥
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अरिहंत का अ, अशरीरी सिद्ध का अ, आचार्य का आ, उपाध्याय का उ और मुनि का म इन सबको परस्पर मिलाने से ॐकार निष्पन्न होता है, जो पंच परमेष्ठी का वाचक है - अ + अ = आ, आ + आ = आ, आ + उ = ओ, ओ + म् = ओम् (ॐ) इस प्रकार ॐ पंच परमेष्ठी का वाचक है ही और अर्हम् की भी महिमा अपरम्पार है। श्रीहेमचन्द्रसूरिजी म. ने सिद्धहेमशब्दानुशासन की वृहद् वृत्ति में लिखा है
“अर्हमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकं सिद्धचक्रस्यादिबीजं सकलागमोपनिषद्भूतमशेषविघ्न विघातनिघ्नमखिलदृष्टादृष्ट संकल्पकल्पद्रुमोपमं, शास्त्राध्ययनाध्यापनावधिप्रणिधयम्।”
'अर्हम्' ये अक्षर परमेश्वर परमेष्ठी के वाचक हैं। सिद्धचक्र के आदि बीज हैं। सकलागमों के रहस्यभूत हैं, सब विघ्न - समूहों का नाश करने वाले हैं। सब दृष्ट यानी राज्यादि सुख और अदृष्ट यानी संकल्पित अपवर्ग-सुख का अभिलषित फल देने में कल्पद्रुम के समान हैं। शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन के आदि में इसका प्राणिधान करना चाहिए । अर्हत् का महत्व दिखलाते हुए आचार्यश्री ने योगशास्त्र में भी फरमाया है।
अकारादिहकारान्तं, रेफमध्यं सविन्दुकम् । तदेव परमं तत्त्वं, यो जानाति सतत्त्व वित् । महातत्त्वमिदं योगी, यदैव ध्यायति स्थिरः । तदैवानन्दसंपद्मुमुक्ति श्रीरुपतिष्ठते ।।
जिसके आदि में अकार है। जिसके अंत में हकार है। बिन्दु सहित रेफ जिसके मध्य में है। ऐसा अर्हम् मंत्र - पद है। वही परम तत्त्व है। उसको जो जानता है समझता है, वही तत्त्वज्ञ है। जब योगी स्थिरचित्त होकर इस महातत्त्व का ध्यान करता है, तब पूर्ण आनन्दस्वरूप उत्पत्तिस्थान रूप मोक्ष - • विभूति उसके आगे आकर प्राप्त होती है।
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वाचकप्रवर श्रीमद्यशोविजयजी भी फरमाते हैं अर्हमित्यक्षरं यस्य चित्ते स्फुरति सर्वदा । परं ब्रह्म ततः शब्दब्राह्मणः सोऽधिगच्छति ।। २७ ।। परः सहस्राः शरदां, परे योगमुपासताम् । हन्तार्हन्तमनासेव्य, गन्तारो न परं पदम् ।।२८।। आत्मायमर्हतो ध्यानात् परमात्मत्वमश्नुते । रसविद्धं यथाताम्रं स्वर्णत्वमधिगच्छति ।। २९ ।। (द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका )
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