Book Title: Namaskar Mahamantra Author(s): Devendravijay Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 7
________________ यदि हमारे यहाँ कर्म आत्मा के शत्रु नहीं माने जाते, तो उ. प्रमाण आते कहाँ से ? इन शत्रुओं को पराजित करने वाली आत्मा को हम अरिहंत कहते हैं। जो आत्मा कभी संसार में उत्पन्न होने वाली नहीं है। जिसने संसार के कारण भूत कर्मों को निर्मूल कर दिया है, वह अजन्मा अर्थात् सिद्ध है। यानी अरुह है | अरुह यह नाम सिद्ध भगवान का होने से अघनघाति चार कर्म शेष हैं जिनके, ऐसे अरिहंत का यह नाम नहीं हो सकता । नाम गुणनिष्पन्न होना चाहिए। अतः इसी नियमानुसार अरिहंतों का अरिहंत यह नाम गुणनिष्पन्न और सार्थक होने से नमस्कार मंत्र के आदि के पद में यही आया है न कि अरहंताणं और अरुहंताणं । यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म प्रश्न - अरिहंतों की अपेक्षा सिद्ध भगवान् आठों कर्मों पर विजय करके चरम आदर्श को प्राप्त कर चुके हैं। अतः अरिहंतों से पहले सिद्धों को नमस्कार करना चाहिए ? तो फिर अरिहंतों को पहले नमस्कार क्यों किया गया ? उत्तर - सिद्ध भगवन्तों से पहले अरिहंत भगवान् को नमस्कार करने का मतलब यह है कि श्रीअरिहंत भगवान् का उपकार सिद्ध भगवान् की अपेक्षा अधिक है। श्रीअरिहंत भगवान् ही हमको सिद्ध भगवान् की पहचान करवाते हैं। सिद्ध भगवान् आठ कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष में (लोकाग्र पर) जाकर विराजमान हो गए हैं और अरिहंत भगवान् सशरीरी अवस्था में विचरण कर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, जिसके द्वारा कर्मों से संतप्त प्राणी वीतराग शासन को प्राप्त कर आत्म कल्याण साधते हैं। अतः सर्वप्रथम अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। अरिहंतों को नमस्कार करने के पश्चात् सिद्धों को नमस्कार किया जाना इस रहस्य का द्योतक है कि पहले अरिहंतों को नमस्कार करके वे शेष रहे अघनघाति चार कर्मों (आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय) का क्षय करके जिस अवस्था को प्राप्त होने वाले हैं, उस सिद्धावस्था को नमस्कार किया जाता है। - Jain Education International श्री अरिहंत भगवान् संसारी जीवों के लिए धर्म - सार्थवाह हैं, यानी जिस प्रकार सार्थवाह अपने साथ के लोगों को उनकी आजीविकोपार्जन के लिए समस्त प्रकार की सुविधाएँ जुटा देता है । उसी प्रकार संसार में निज आत्म-साधना से जो च्युत हो गए हैं, उन्हें आत्मसाधना में लगा देते हैं। वे संसार से तिरते हैं और दूसरों को तिराते हैं । अतः उन्हें तिन्नाणं- तारयाणं विशेषण दिया ট ট{ ও For Private गया है। सिद्ध भगवान् अशरीरी होने से लोकाग्र पर जाकर विराजमान हो गए हैं, अतः वे हमको किसी प्रकार का उपदेश नहीं देते, अतः हम सिद्ध भगवंतों से पहले अरिहंत भगवान् को नमस्कार करते हैं। इसमें सिद्ध भगवन्तों की किसी प्रकार से आशातना भी नहीं होती । प्रश्न - श्री अरिहंत भगवान कैसे होते हैं ? उत्तर श्री अरिहंत भगवान ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीय इन चार घनघाती कर्मों का नाश करके केवलदर्शन केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ बने हुए। तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले, द्वादश गुणों से विराजित, चौंतीस अतिशयवंत। पैंतीस गुणयुक्त वाणी के प्रकाशक, भव्य जीवों को ज्ञानश्रद्धा रूप चक्षु के देने वाले । प्रशस्त मार्ग दिखलाने वाले। स्वयं कर्मों को जीतने वाले और दूसरों को जिताने वाले श्री अरिहंत भगवान होते हैं। श्रीमहरिभद्रसूरीशकृत अष्टक प्रकरण की श्री अभयदेव सूरिकृत टीका के पृ. २ पर लिखा है. - - - रागोङ्गनासङ्गमनानुमेयो द्वेषोद्विषद्दारण हेतुगम्यः। मोहः कुवृत्तागम दोषसाध्यो नो यस्य देवः सतुसत्यामर्हन् ।। जिस देव को स्त्री संग से अनुमान करने योग्य राग नहीं है, जिस देव को शत्रु के नाश करने वाले शस्त्र के संग अनुमान करने योग्य द्वेष नहीं है, जिस देव को दुश्चरित्र दोष से अनुमान करने योग्य मोह नहीं है, वह ही सच्चा देव अर्हन् (अरिहंत) है। अर्थात् राग-द्वेष और मोह से जो रहित है, वही देव बनने योग्य है। श्री अरिहंत भगवान के स्वरूप का विशेष विवरण श्री आवश्यक सूत्र श्रीविशेषावश्यकभाष्य और श्रीवीतरागस्तोत्र आदि से जानना चाहिए। अरिहंत के नाम - अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालविद् क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः । । शम्भुः स्वयम्भूर्भगवान् जगत्प्रभुस्तीर्थङ्करस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ||२४|| स्याद्वाद्यमयदसार्वाः सर्वज्ञः सर्वदर्शि केवलिनौ । देवाधिदेववोधिद पुरुषोत्तमवीतरागाप्ताः ।।२५।। Personal Use Only अर्हन्, जिन, पारगत, त्रिकालविद्, क्षीणाष्टकर्मा, परमेष्ठि, अधीश्वर, शम्भु, स्वयंभू, भगवान्, जगत्प्रभु, तीर्थंकर, तीर्थकर, www.jainelibrary.orgPage Navigation
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