Book Title: Namaskar Mahamantra
Author(s): Devendravijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 6
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म का प्रदर्शन ही कर डाला। क्या शत्रुओं का नाश करने वाला अत्याचारी भी अरिहंत संज्ञा को प्राप्त होगा ? पर वास्तव में आपके द्वारा प्रदर्शित यह अर्थ अरिहंत से निकलता ही नहीं है। हमने आगे जो श्री आवश्यकनिर्युक्ति और श्रीविशेषावश्यक की गाथाएँ उद्धृत की हैं। उनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा के कर्म रूप जो शत्रु उनका अत्यंताभाव करने वाले (पराजय करने वाले) को अरिहंत कहा जाता है। उनको हम नमस्कार करते हैं। कहाँ आम और कहाँ आक ? क्या कभी आक भी आम्र कहलाएगा ? कहाँ सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग अरिहंत और कहाँ अत्याचारी आताताई डाकू ? चिंतामणि और पाषाण को एक समान कैसे गिना जा सकता है ? जो लोग इस प्रकार मनचाहा अर्थ लिखकर अपना अभिमत सिद्ध करने के लिए बेकार का भ्रम खड़ा करते हैं वे ज्ञात होता है, ममत्व के झूठे मोह में कर्मों का बंध ही प्राप्त करते हैं। श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, विद्वशिरोमणि श्री हरिभद्रसूरि, वृत्तिकार श्री मलयगिरीजी आदि अनेक पूर्वाचार्यों ने भी अरिहंत का यही अर्थ किया है। क्या वह असत्य है ? नहीं वह असत्य नहीं सत्य है। हम अपने अभिमत की पुष्टि करने के लिए जो कपोलकल्पित अर्थ करते हैं, वह अप्रामाणिक है। जो लोग अरिहंत शब्द का मनमाना अर्थ कर उसमें अपने अवास्तविक तर्कों का क्षेपन करते हैं। उनको पूर्वाचार्यों के शास्त्रों का मनन करना चाहिए । मनन करते समय ममत्व और दृष्टिराग का पटल आँखों हटा लेना चाहिए, क्योंकि कामराग और स्नेहराग को हटाना तो सरल है, परन्तु दृष्टिराग बड़ी कठिनता से दूर होता है। तभी तो श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी ने वीतरागस्तोत्र में लिखा है कि कामरागस्नेहरागानीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि ।। १० ।। यदि उक्त स्थिति वाले होकर सत्य का अवलोकन किया जाए, तो अवश्य ही सत्य की प्राप्ति हो जाती है। प्रश्न - अरिहंत, अरुहंत और अरहंत ऐसे तीन पद व्याकरण से 'अर्ह' धातु से बनते हैं, तो फिर उन तीनों में से यहाँ अरिहंत ही क्यों लिया ? अरहंत और अरुहंत क्यों नहीं लिए ? का ही प्रयोग है, नमस्कार के उपधान के अधिकार में । अरहंत और अरुहंत का अर्थ इस प्रकार है 'अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हन्तः ' अरहंत यानी देवादि द्वारा पूजित। Jain Education International न रोहति भूयः संसारे समुत्पद्यते इत्यरुः, संसारकारकानां कर्मणां निर्मूलः कर्षितत्वात् । अजन्मनि सिद्धे । संसार में पुनः जो उत्पन्न नहीं होते हैं, उन्हें अरुह कहते हैं। • कर्मों का समूल नाश करने से उनका पुनर्जन्म नहीं होता । - उक्त दोनों पाठों से यह सिद्ध होता है कि अरहंत यानी पूजा के योग्य और जिन्होंने समस्त कर्मों को निर्मूल कर दिया है, वे अरुह यानी सिद्ध हैं। यहाँ जरा ममत्व को छोड़कर सोचो कि जो आत्मा कुछ काल पूर्व हमारे जैसे ही सकर्मा एवं संसारी आत्मा थी । वही पूजा के योग्य कैसे बन गई ? तब हम इसके उत्तर में झट कह देंगे कि - अनादिकाल से आत्मा के साथ जो कर्मों का मैल था, यानी आत्मा के गुणों के घातक जो कर्म थे, उनको सम्यग् क्रियानुष्ठानों द्वारा आत्मा से दूर कर दिया गया, जिससे वे पूजन के योग्य हो जाती हैं। कर्म आत्मा के दुश्मन थोड़े ही हैं, जो उनका हनन किया जाता है ? क्या हम आत्मा के ज्ञानादि गुणों के घातक कर्मों को घातक नहीं मानते ? जो कह दिया जाता है कि कर्म आत्मा के दुश्मन नहीं है । कैसे नहीं हैं ? शास्त्रकारों ने तो कर्मों को आत्मा के दुश्मन कहा ही है, क्योंकि कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों को अवतरित जो करते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि "कम्मरिवु जएण सामाइयं लब्भति" श्री आवश्यक सूत्रचूर्णि १ : अ. "कामक्रोधलोभमानमोहाख्ये आन्तरशत्रषट्के " श्रीसूयगडांगसूत्र' । "रागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् जितयन्तो जिनः " श्री जीवाभिगमसूत्र', २ प्रतिपत्ति, निघ्नन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्रासोऽसि शमसौहित्य, महतां कापि वैदुषी ।। १ ।। अरक्तो भुक्तवान्मुक्तिमद्विष्टो हतवान्द्विषः अहो ? महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः || २ || श्रीवीतरागस्तोत्र ११वाँ प्रकाश । उत्तर - अरहंत और अरुहंत इन दो पदों का पाठभेद के रूप में कहीं-कहीं उपयोग हुआ है, परन्तु वह अन्य अर्थों में। न कि इस अर्थ में और नवकार में। महानिशीथसूत्र में अरिहंताणं ম{ ६ ] For Private Personal Use Only - প www.jainelibrary.org

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